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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १४ / ३० आगे मनुष्य नहीं जा सकते। इसी कारण यह ढ़ाई द्वीप मनुष्यक्षेत्र कहलाता है। भंडारीजी इस मनुष्यक्षेत्र के बाहर क्या है ? विद्याधर : मनुष्यक्षेत्र के बाहर अनेक द्वीप और समुद्र हैं। सेनापति : भाई ! आगे आठवाँ नंदीश्वरद्वीप आता है। उस द्वीप में अद्भुत जिनमंदिर हैं। मंदिरों में रत्नों की शाश्वत जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। वहाँ की शोभा तो सचमुच ही अद्भुत है। जिसप्रकार आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति अनादि से है, उसीप्रकार वहाँ प्रतिबिम्ब रूप वीतरागी जिनप्रतिमा भी अनादि से है। अहो ! उनकी परम अद्भुत शोभा है। ऐसा लगता है मानो वीतरागी मुद्रा मौन रहकर मोक्षमार्ग का उपदेश दे रही हो । राजा श्रीकंठ : क्या हमको उनके दर्शन नहीं हो सकते ? विद्याधर : भाई ! वहाँ देव ही जा सकते हैं। वहाँ मनुष्य नहीं जा सकते हैं। कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष में अष्टमी से पूर्णिमा तक अष्टाह्निका पर्व आता है। तब इन्द्र और देव नंदीश्वरद्वीप में जाकर भक्तिपूर्वक विशाल उत्सव मनाते हैं। कुछ ही दिनों में कार्तिक की अष्टाह्निका आनेवाली है। तब इन्द्र वहाँ जाकर भक्ति करेंगे और हम यहीं से परोक्षरूप में अर्घ्य चढ़ायेंगे। ( पर्दा गिरता है | ) राजा श्रीकंठ : अरे ! क्या बात है, आज राजकुमार दिखाई नहीं दे रहे हैं ? दीवानजी : छोटे-छोटे राजकुमार जंगल में घूमने गये थे। कहीं रास्ता न भूल गये हों ? सेनापति : नहीं महाराज ! भूल नहीं सकते; क्योंकि अंगरक्षक उनके साथ हैं। (अंगरक्षक आता हैं।) राजा श्रीकंठ : अरे ! यह अंगरक्षक तो आ गये हैं। क्यों भाई ! राजकुमार कहाँ हैं? अंगरक्षक : अन्नदाता ! मैं यही समाचार देने आया हूँ। जब
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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