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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १४/१३ बड़ा भाई : प्रिय भाई ! आज तुम्हारी पवित्र भावना देखकर मुझे बहुत खुशी हो रही है। मुनिराज ने महान करुणा करके प्रथम तो अरहंत भगवान का स्वरूप समझाया, फिर बाद में यह समझाया कि जैसा अरहंत भगवान का स्वरूप है, वैसा ही अपनी आत्मा का स्वरूप है। अरहंत भगवान की आत्मा में और अपनी आत्मा के स्वभाव में परमार्थ से कोई अन्तर नहीं है। अरहंत भगवान की आत्मा द्रव्य, गुण और पर्याय सर्वप्रकार से शुद्ध है - ऐसा समझने से अपनी आत्मा का वास्तविक स्वरूप भी समझ में आ जाता है। इस संबंध में मुनिराज ने एक श्लोक भी कहा था। छोटा भाई : वह कौन-सा श्लोक कहा था ? मुझे भी बताइये । बड़ा भाई : वह श्लोक मैंने लिख लिया था। लो, इसे स्वयं ही पढ़ लो। जो जाणदि अरहंतं, दव्वत्त गुणत्त पज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं । । जो जानता अरहंत को, गुण द्रव्य अरु पर्याय से। वह जानता निज आत्म को, दृगमोह उसका नाश हो || छोटा भाई : भाईसाहब! वास्तव में इस गाथा में उद्धृत भावों के समान ही आपने आत्मा में परिणमन किया है। आपने अरहंत भगवान के समान अपने वास्तविक स्वरूप को समझकर मोह का नाश किया है। अब आपने मुझे भी मोहक्षय करने का उपाय बतलाकर मुझ पर महान उपकार किया है। अहो ! सम्यग्दर्शन की असीम महिमा को मैंने आज समझा है। भाईसाहब ! सम्यग्दर्शन में आपको कैसा आनंद आया ? बड़ा भाई : अहो भाई ! इस आनंद की क्या बात? जैसा सिद्ध भगवान का आनंद है, वैसा ही यह आनंद है। अरे भाई ! इस आनंद का क्या कहना? इसे कैसे बतावें ? यह तो अन्तर के अनुभव की वस्तु है। परभावों से भिन्न जो आनंद है, उसकी तुलना जगत के किसी भी पदार्थ से नहीं की जा सकती । छोटा भाई : हाँ भाईसाहब! आपकी बात सत्य है। आपके
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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