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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/१४ तो दूर रही, देखो, सामने यह जिनदत्त नामक एक श्रावक सामायिक की प्रतिज्ञा करके अन्धेरी रात में यहाँ श्मशान में अकेला ध्यान कर रहा है, उसकी तुम परीक्षा करो ।" तब उस देव ने अनेक प्रकार से उपद्रव किया, परन्तु जिनदत्त सेठ तो सामायिक में पर्वत के समान अटल रहे, अपनी आत्मा की शान्ति से जरा भी डगमगाये नहीं । अनेक प्रकार के भोग-विलास बताये, तो भी वे लालायित नहीं हुए । एक जैन श्रावक की ऐसी दृढ़ता देखकर वह देव बहुत प्रसन्न हुआ । बाद में सेठजी ने उसे जैनधर्म की महिमा समझायी- हे देव ! आत्मा से देह भिन्न है । आत्मा के अवलम्बन से ही जीव अपूर्व शान्ति का अनुभत करता है और उसी के अवलम्बन से वह मुक्ति पाता है। . यह सुनकर उस देव को भी जैनधर्म की श्रद्धा हुई । उसने सेठजी का उपकार माना और उन्हें आकाशगामिनी विद्या प्रदान की । .. आकाशगामिनी विद्या के बल से जिनदत्त सेठ प्रतिदिन मेरु पर्वत पर जाते और वहाँ के अद्भुत रत्नमय जिनबिम्बों के तथा चारणऋद्धिधारी मुनिवरों के दर्शन करते, जिससे उन्हें बहुत आनन्द आता । .. एक बार सोमदत्त नामक माली ने सेठजी से पूछा- “सेठजी आपने आकाशगामिनी विद्या सम्बन्धी बहुत-सी बातें कहीं और रत्नमय जिनबिम्बों का बहुत वर्णन किया, उसे सुनकर मुझे भी वहाँ के दर्शन करने की भावना जागी है । आप मुझे आकाशगामिनी विद्या सिखाइये, जिससे मैं भी वहाँ के दर्शन करूँ।" ... सेठजी ने माली को वह विद्या सिखाई । सेठजी के बताये अनुसार अन्धेरी चतुर्दशी की रात के समय श्मशान में जाकर उसने पेड़ पर सींका लटकाया और नीचे जमीन पर तीक्ष्ण नोंकदार भाले लगाये । आकाशगामिनी विद्या की साधना करने के लिए सीके में बैठ कर, पंच णमोकार मन्त्र बोलते हुए सीके की रस्सी काटनी थी, परन्तु
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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