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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/७६ . वह कहती थी मेरा रथ ही जैनों से पहले निकलेगा। जैनी रानी भी कहती थी मेरा रथ पहले निकलेगा।। आपस में जब तकरार बढ़ी अरु न्याय सामने आया है। जो जीते निकले रथ उसका राजा यह हुक्म सुनाया है।। पण्डित विद्वत् जन त्यागी मण सब अपने अपने बुलवावें। शास्त्रार्थ करें आजादी से नहिं कोई किसी का भय खावें।। अकलंक देव उस नगरी में तब अकस्मात आ जाते हैं। जैनों का उस क्षण खुशियों के सागर का पार न पाते हैं।। कह देते हैं जा राजा से शुभ काम में कैसी देरी है। अकलंक श्री के वचन सुनो मिट जावे भव की फेरी है।। इनके विरोध में संघश्री बौद्धों को राजा सुनते हैं। शास्त्रार्थ चला वह छह महिने अकलंक न पीछे हटते हैं।। कारण वहां तारा देवी ने बौद्धों का साथ निभाया था। अकलंक श्री ने साहस धर श्री जिनवर का गुण गाया था।। जिनगुण गाते ही जो देवी जिनगुण धारक की भक्ति में। आकर के सब समझाती है चक्रेश्वरी देवी उक्ती में।। तारा देवी घट में बैठी वह पट के अन्दर बोल रही। लेकिन आगे-आगे बढ़ती पीछे-पीछे का भूल रही।। इसलिये दुवारा प्रश्न वही पीछे का आगे रख देना। होगी असमर्थ बताने में हो जायेंगे नीचे नैना।। इम करत श्री अकलंक तभी बौद्धों से वहां जय पाई है। राजा-परजा सब जैन हुए यह कथा बड़ी सुखदाई है।। अकलंक देव मम हृदय बसो जिनधर्म मर्म तुमने खोला। रचना रच 'प्रेम' खुशी होता मम समय रहा यह अनमोला।।