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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६६ संघश्री : हे भगवान जिनेन्द्रदेव! आपके पवित्र शासन को अंगीकार करके मैं आपकी शरण में आया हूँ। मेरा भाग्य है कि मुझे ऐसे उत्तम जैनधर्म की प्राप्ति हुई। अहो! जैनधर्म के तत्त्व महान उत्तम है। अकलंक : धन्य है भाई! तुम्हारा ऐसा उत्तम हृदय-परिवर्तन देखकर मुझे अपार हर्ष हो रहा है और वात्सल्य उमड़ रहा है कि मानो मेरा निकलंक भाई ही तुम्हारे रूप में जैनधर्म की भक्ति करने आया हो। तुमने जैनधर्म स्वीकार किया है, इसलिए मुझे अत्यधिक हर्ष हो रहा है। भक्तिपूर्वक उसकी आराधना करके आत्मकल्याण करो। जगत में ये जिनेन्द्र भगवान का धर्म ही परमशरणरूप है। संघश्री : भाई! आपके प्रताप से आज मुझे जिनेन्द्र देव का धर्म प्राप्त हुआ, इसलिए मेरे हृदय में अपार हर्ष हो रहा है और जिनेन्द्र देव की भक्ति के द्वारा मैं अपना हर्ष व्यक्त करना चाहता हूँ। अकलंक : यह बहुत अच्छी बात है। जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में हम भी आपका सहर्ष साथ देंगे। (जैनधर्म के भक्त विद्वान संघपति गद्गद् भाव से निम्नलिखित भक्ति गाते हैं। अन्य सब लोग भी उसे दोहराते हैं।) एक तुम्ही आधार हो जग में, ए मेरे भगवान, कि तुमसा और नहीं बलवान। सम्भल न पाया गोते खाया तुम बिन हो हैरान, कि तुमसा और नहीं गुणवान।।टेक।। आया समय बड़ा सुखकारी, आतम बोधकला विस्तारी। मैं चेतन, तन वस्तु न्यारी, अनेकान्तमय झलकी सारी।। निज अंतर में ज्योति ज्ञान की, अक्षय निधि महान।।१।। दुनिया में एक शरण जिनन्दा, पाप-पुण्य का बुरा है फंदा। मैं शिवभूप रूप सुखकन्दा, ज्ञाता-द्रष्टा तुम-सा बन्दा।। मुझ कारज के कारण तुम हो, और नहीं मतिमान।।२॥
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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