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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६७ में हैं। मंगलबाजा बज रहा है, रत्नजड़ित गजरथ में जिनेन्द्र भगवान विराजमान हैं। पीछे लाखों नागरिक हैं, रथयात्रा मंच पर आने पर भगवान को सिंहासन पर विराजमान करके अभिषेक पूजन किया जा रहा है।) (अकलंक अभिषेक पूजन की विधि सम्पन्न कराते हैं) मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्॥ मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये॥ ॐ ह्रीं भगवान श्री सर्वज्ञ वीतराग जिनेन्द्रदेव के चरणकमल पूजनार्थ अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। __ (इतने में अजिनकुमार दौड़ता हुआ आता है और अकलंक को नमस्कार करता है।) अजिनकुमार : (गद्गद् होकर) महाराज! मुझे क्षमा करो, आज की भव्य रथयात्रा देखकर नगरी के लाखों लोग प्रभावित हुए हैं। ऐसी रथयात्रा में हमने विघ्न डाला है, इसके लिए बहुत-बहुत पश्चाताप है। इसलिए मेरी माता अश्रुपूरित आंखों से आपसे क्षमा मांगती है और हम भी जैनधर्म को अंगीकार करते हैं। उदार दिल से आप हमें क्षमा करके जैनधर्म में लगायेंगे ऐसी आशा करते हैं। अकलंक : अवश्य! अवश्य! धन्य है तुम्हारी माता को! जो वे अपने हिताहित का विवेक कर सन्मार्ग की ओर झुक रही हैं। जैनधर्म सारी दुनिया के लिए खुला है। आओ! आओ! जिसे अपना हित करना हो, वह जैनधर्म की शरण में आओ। (आचार्य संघश्री अनेकों शिष्यों के साथ शरण में आकर गद्गद् भाव से कहते हैं।) संघश्री : भाई! भाई! मुझे क्षमा करो। मुझ पापी ने ही तुम्हारे
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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