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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६४ राजा : बोलिए संघश्री! अन्यथा आप निरुत्तर हो गये समझे जायेंगे। (पुन: थोडी देर शान्ति) राजा : (खड़े होकर) कल भी आप निरुत्तर हो गये थे और आज भी आप निरुत्तर हो गये हैं, अत: मैं अकलंककुमार की विजय घोषित करता हूँ और जैनधर्म की रथयात्रा पहले निकलेगी। जिनकुमार : (हर्षोल्लासपूर्वक) बोलिए, जैनधर्म की जय! (हाथ में स्थित जैन झंडे को ऊंचा फहराकर पुन: बोलता है।) जिनकुमार : “बोलिए जैनधर्म की जय! अकलंककुमार की जय!!" अकलंक : महाराज देखिए! अब मैं इस पर्दे का रहस्य प्रकट करता हूँ। (पर्दे के पास जाकर उसको दूर हटा देते हैं और मटका हाथ में लेकर बताते हैं।) राजा : अरे! यह क्या? अकलंक : सुनिए! कल वाद-विवाद में संघश्री जवाब न दे सके थे, इसलिए परेशान होकर सिर में चक्कर आने का झूठा बहाना निकाला और फिर उन्होंने किसी भी प्रकार से विजय प्राप्त करने के लिए रात्रि में विद्या द्वारा एक देवी को साधा है। पर्दे के पीछे से संघश्री नहीं बोल रहे थे, अपितु उनके स्थान पर इस मटके में स्थित देवी जवाब देती थी, परन्तु जिन-शासन के प्रभाव से जैनधर्म की भक्त देवी ने रात्रि में आकर मुझे यह बात बता दी थी, अत: आज संघश्री से एक ही बात पुन: दूसरी बार पूछी, परन्तु देव एक ही बात दूसरी बार नहीं बोलते हैं, इसलिए संघश्री का भेद खुल गया है। राजा : अर र र र र .....! धर्म के नाम पर इतना दम्भ!
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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