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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६२ हार गया। अथवा मेरे प्रश्न का जवाब देने के लिए आपको अपनी नित्यता स्वीकारनी पड़ेगी और इसप्रकार भी आपका पक्ष उड़ जाता है और अनेकान्त सिद्ध होने पर जैनधर्म की विजय होती है। (इस प्रकार अनेक दिनों तक संघश्री और अकलंककुमार में वाद-विवाद होता रहा, अंत में संघश्री घबडा गये।) संघश्री : (थोड़ी देर मस्तक पर हाथ लगाकर और फिर राजा की ओर देखकर) महाराज! मेरे सिर में चक्कर आ रहे हैं, इसलिए यह चर्चा अब कल के लिए रखी जाए। राजा : बोलिए, अकलंककुमार! आपका क्या मत है ? अकलंक : महाराज! सही बात यह है कि इनके सिर में चक्कर नहीं आये हैं, बल्कि इनकी बुद्धि ही चक्कर में पड़ गई है; इसलिए यह बहाना खोजा है। खैर, कल ये जवाब देवें, परन्तु मुझे पक्का विश्वास है कि ये तो क्या, इनके भगवान साक्षात् भी आ जाएँ तो भी जवाब नहीं दे सकते। राजा : आज की सभा कल तक के लिए स्थगित की जाती है। (सभा बिखर जाती है, पर्दा गिरता है) __ श्री जिनेन्द्र देव, वीतराग धर्म और निर्ग्रन्थ गुरु- ये तीनों सम्यक्त्व के प्रमुख कारण हैं अर्थात् इन तीनों की यथार्थ पहचान और श्रद्धा से सम्यग्दर्शन होता है । हे वत्स! यह सम्यग्दर्शन अमृत समान है, क्योंकि यह सर्व दोष रहित है । भगवान तीर्थकर परमदेव ने स्वयं इसका निरूपण किया है। इन्द्र भी इसे भक्तिभाव से सेवन करते है। ऐसे सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होते ही अनेक उत्तम गुण स्वयमेव प्रगट हो जाते हैं। मोक्ष रूपी पेड़ का बीज सम्यग्दर्शन है।। हे भव्य! तू सर्व प्रकार की शंका छोड़ कर इस को धारण कर, सम्यक्त्व रूपी आनन्द-अमृत का पान कर। ' - सकलकीर्ति श्रावकाचार
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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