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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/५७ अकलंक : बड़ी खुशी के साथ। मेरे छोटे भाई के बलिदान का मूल्य लेने का और जैनधर्म की महान प्रभावना का यह प्रसंग आया है। लाओ! मैं स्वयं ही उनको पत्र लिख देता हूँ। (पत्र लिखकर देते हैं) संघपति : (एक अन्य धन्यकुमार नामक व्यक्ति) धन्यकुमार! यह पत्र आचार्य संघश्री को दे आओ। (वह जाकर थोड़ी देर में लौट आता है।) संघपति : क्यों धन्यकुमार! पत्र दे आये हो? धन्यकुमार : जी हाँ, ऐसा महान विद्वता-पूर्ण पत्र पढ़ते ही संघश्री आचार्य का मद तो चकनाचूर हो गया। संघपतिजी! आप सब निश्चित रहना, विजय तो अपनी ही होनी है। संघपति : बोलिए, जैनधर्म की जय! जीवों को देव-गुरु-शास्त्र के प्रति सेवा का भाव, संसार से विरक्ति और मोक्षमार्ग साधने का उत्साह अर्थात् रत्नत्रय की भावना कोई महान सद्भाग्य से ही प्राप्त होती है। हृदय सदा वैराग्य से भरा हुआ रहना, ज्ञान के अभ्यास में सदा तत्पर रहना, सभी जीवों के प्रति समता भाव रखना- ये तीनों बातें महान भाग्यवान जीव को ही प्राप्त होती हैं। . - सकलकीर्ति प्रावकाचार
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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