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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/४२ (दोनों भाई आत्मस्वरूप का चिंतन करते हैं। बाहर भी पूर्ण शान्ति है। पहरेदारों के खर्राटों की आवाज आ रही है।) अकलंक : (निकलंक का हाथ पकड़कर) निकु! निकु! चलो, उठो! जल्दी करो! देखो! ये पहरेदार गहरी नींद में सो रहे हैं। हम इस जेल को लांघकर जल्दी ही निकल चलते हैं। (पहले अकलंक जेल से निकल जाते हैं। फिर बाद में निकलंक को हाथ का सहारा देकर बाहर निकालते हैं। एक दूसरे के साथ हाथ मिलाकर दोनों भाई तेजी से भाग रहे हैं। इतने में पर्दा गिरता है, दृश्य बदलता है।) गुरु : पहरेदारो! जाओ अकलंक-निकलंक को जेल से लेकर यहाँ आओ। पहरेदार : जैसी आज्ञा! (पहरेदार जाते हैं और हांफते-हांफते लौटकर आते हैं।) पहरेदार : महाराज! महाराज! वे दोनों तो जेल से भाग गये। गुरु : अरे! क्या कह रहे हो? क्या वे भाग गये? गजब हो गया। सिपाहियो! जाओ! उन दोनों को तुरंत पकड़ो! यदि वे पकड़ में नहीं आये तो हमारे धर्म को भारी नुकसान पहुचायेंगे। मैं जानता हूँ कि केवल अकलंक में ही ऐसी ताकत है कि वह बड़े-बड़े सैकड़ों विद्वानों को हरा सकता है। इसलिए चारों ओर सैनिकों को दौड़ाओ और कैसे भी उनको पकड़ो। यदि जीवित पकड़ में न आयें तो प्रहार कर देना। जाओ! जल्दी जाओ! (अनेक सैनिक ‘धम-धम' करते हुए जाते हैं। पर्दा गिरता है। दृश्य बदलता है। यहाँ अकलंक-निकलंक दौड़ते हुए भाग रहे हैं।) अकलंक : चलो निकलंक! जल्दी चलो! जितना हो सके उतना अधिक दूर निकल जाएँ। निकलंक : भाई! जैनधर्म का प्रभाव है कि हम जीवित बच गये।
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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