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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६ / ३५ निकलंक : (करुण होकर) भाई ! अपने ऊपर बड़ा भारी धर्मसंकट आ पड़ा है। अब हम क्या करें ? जिनेन्द्र भगवान अपने इष्टदेव हैं। उनकी प्रतिमा का उल्लंघन अपने से कैसे हो सकता है ? प्राण जाय तो भी ऐसा नहीं हो सकता। लेकिन यदि ऐसा नहीं करेंगे तो अभी इसी वक्त हम इन गुरु के हाथों पकड़े जाकर मृत्यु प्राप्त करेंगे और जैन - शासन की सेवा की अपनी भावना अधूरी ही रह जायेगी । और फिर इस समय विशेष विचार का समय भी नहीं है, क्योंकि अब तुरन्त मूर्ति को लांघने की हमारी बारी आ रही है। अकलंक : (निकलंक के ऊपर हाथ रखकर) भाई ! प्राण जाए तो भी अपने इष्टदेव जिनेन्द्र भगवान की अविनय नहीं करनी चाहियेयह तुम्हारी भावना देखकर मुझे बहुत खुशी हो रही है ! तुम अपनी इस भावना में अडिग रहना । जिनेन्द्र भगवान अपने जीवनसाथी हैं। निकलंक : परन्तु भाई ! मुझे चिंता हो रही है कि अब अपना क्या होगा? आप उत्पादादिक बुद्धिवाले हैं। अत: इस समय कोई युक्ति खोजकर निकालिए। अकलंक : (थोडी देर विचार करके) भाई ! तुम निश्चित रहो, मुझे उपाय सूझ गया है। (गले में से जनेऊ निकालकर) देखो, यह जनेऊ ! जब अपनी बारी आयेगी तब इस मूर्ति पर यह जनेऊ डालकर उसे परिग्रहवाली कर लेना अर्थात् यह मूर्ति जैनमूर्ति नहीं रहेगी और फिर हम इसे निशंकपने लाँघ कर निकल जायेंगे। निकलंक : बहुत अच्छा भाई ! धन्य है आपकी बुद्धि को। (अन्दर से आवाज आती है।) अकलंक-निकलंक! ओ अकलंक-निकलंक !! अकलंक : चलो भाई! अपनी बारी आ गई। (दोनों अन्दर जाते हैं। थोड़ी देर में अन्दर का पर्दा खुलता है। वहाँ एक मूर्ति या चित्र पर जनेऊ पड़ी हुई दिखाई देती है। तुरन्त पर्दा गिरता है। थोड़ी देर में पर्दा खुलता है और गुरु तथा मंत्री चिंतामग्न बैठे हुए दिखाई देते हैं ।)
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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