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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१६ मुनिराज : दशलक्षण महापर्व हमारे लिए आत्म-आराधना का सबसे उत्तम अवसर प्राप्त कराता है। आत्मा का पूर्णानन्दस्वभाव प्रगट करके जो सर्वज्ञ परमात्मा हुए हैं, उनका उपदेश है कि हे जीवो! तुम्हारे आत्मा में पूर्ण ज्ञान और आनन्द स्वभाव भरा हुआ है। उस स्वभाव की श्रद्धा करो, उसका ज्ञान करो एवं उसमें लीन रहो। स्वरूप में लीनता होने पर चैतन्य का प्रतपन होना अर्थात् आत्मा में उग्रपने स्थिर होना ही तप है। श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र और तप - ऐसी चतुर्विध आराधना के द्वारा चार गति का अन्त करके सिद्धपद प्राप्त होता है। अहो जीवो! यह संसार घोर दुख से भरा हुआ है। उससे बचने के लिए अत्यंत भक्तिपूर्वक चतुर्विध आराधना करो। चार आराधनाओं में भी सबसे पहली सम्यक्त्व आराधना है, उस सम्यक्त्व की अतिशय भाव पूर्वक आराधना करो और फिर विशेष शक्ति धारण कर चारित्र धर्म अंगीकार करके जीवन सफल बनाओ। पुरुषोत्तम सेठ (खड़े होकर कहते हैं) हे प्रभो! आपका कल्याणकारी उपदेश सुनकर हमें अति प्रसन्नता हो रही है। हे प्रभो ! चारित्रदशा अंगीकार करने की तो मेरी शक्ति नहीं है, परन्तु इस संसार के क्षणभंगुर भोगों से मेरा चित्त उदास हुआ है, इसलिए आपके समक्ष में आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करता हूँ। ( अकु निकु भी खड़े हो जाते हैं ।) अकु : पिताजी ! पिताजी !! आप यह क्या कर रहे हैं ? पिताजी : बेटा! मैं व्रत ले रहा हूँ । अकु-निकु (हाथ जोड़कर) हम को भी व्रत दिलाओ । पिताजी : (हास्यपूर्वक) बहुत खुशी से लो । पुत्रो ! तुम भी व्रत लो। अकु - निकु : प्रभो ! हमारे पिताजी ने जो व्रत लिया है, वह हम भी अंगीकार करते हैं। हमारा यह जीवन जैनधर्म की सेवा में व्यतीत हो । नगरसेठ : चलो, अब हम दशलक्षण पूजा करने चलें । ( सब लोग मुनिराज को नमस्कार करके नगरी में चले जाते हैं ।)
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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