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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/८७ प्रभो ! अब मैं भी इस भव-दुःख से छूटकर जन्म-मरण रहित परमपद को प्राप्त करना चाहता हूँ।" मुनिवरों ने हनुमान के वैराग्य की प्रशंसा की – “अहो भव्य ! तुमने उत्तम विचार किया....तुम चरमशरीरी हो, शीघ्र ही अपना आत्मकल्याण करो। इस जगत को तुमने असार जाना है और परम सारभूत चैतन्यतत्त्व को तुमने अनुभवा है, इससे तुम्हें मुनि बनकर मोक्ष को साधने की कल्याणकारी बुद्धि उपजी है - धन्य है तुम्हें! तुम शीघ्र मुनिधर्म अंगीकार करके अपने आत्मा को मोक्षमार्ग में स्थापित करो।" श्री मुनिवरों की आज्ञा पाकर हनुमानजी ने उनके चरणों में बारम्बार नमस्कार किया। मुकुट हार आदि समस्त वस्त्राभूषण उतारे.... अन्त में समस्त संसार का राग भी छोड़ा- ऐसे सर्व प्रकार से निपँथ होकर मोह-बंधन तोड़कर वीर हनुमान मुनि हुये । कामदेव होने से उनका शरीर का रूप तो अद्भुत था ही, अब तो रत्नत्रय के सर्वोत्कृष्ट आभूषणों से उनका आत्मा अतिशय रूप से सुशोभित होने लगा। वाह शुद्धोपयोगी संत हनुमान ! आपको हमारा नमस्कार हो !! हनुमानजी के साथ में अन्य हजारों विद्याधर भी मुनि हुये। हजारों विद्याधर रानियाँ, श्रीबंधुमती अर्जिकाजी के पास जाकर अर्जिका हुईं। हनुमानजी की दीक्षा के इस महावैराग्यमय प्रसंग को देखकर अनेक प्रजाजनों ने श्रावक के व्रत लिये। इसप्रकार जैनशासन का महान उद्योत हुआ। श्री शैल मुनिराज शैलेश (पर्वत) से भी अधिक अचल रूप से चारित्र का पालन करने लगे। उनका अद्भुत वीतरागी चारित्र देखकर इन्द्र भी उनको नमस्कार करके उनकी प्रशंसा करने लगे। राम-लक्ष्मण ने भी उनको वंदन किया। उन्हें मोक्षलक्ष्मी की भी आकांक्षा नहीं थी ! वे तो मात्र अपनी निर्विकल्प स्वानुभूति में ही मग्न थे, फिर भी उनका दिव्य वीतरागी रूप देखकर मोक्षलक्ष्मी भी प्रसन्न होकर दौड़ी आई ! परन्तु शुद्धोपयोग
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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