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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/७९ अपूर्व हित होता है - ऐसी मुद्दे की बात तो यही है कि ज्ञानानन्द स्वरूप आत्मा को जानो, उसकी महिण और महात्म्य बराबर समझकर उसमें झुकना, वही परमात्मा को वास्तविक नमस्कार है, वही रत्नत्रय तीर्थ की वास्तविक यात्रा है और वही सिद्धि का पंथ है। मुनिराज कहते हैं – “हमारा चिदानन्द तत्त्व शान्ति और आनन्द से भरा हुआ है, बाहर में पुण्य के ठाठ में कहीं हमारी शान्ति या आनन्द नहीं हैं, इसलिये हम तो हमारे चैतन्य में ही नमते हैं, उसी की तरफ हमारी परिणति का झुकाव है, हम चिदानन्द स्वभाव को ही प्रणाम करते हैं, चिदानन्द स्वभाव के सिवाय अन्यत्र कहीं भी हमें महात्म्य या महिमा नहीं है.... अन्तर चैतन्य स्वभाव में झुककर उसके अतीन्द्रिय आनन्द का ही हम स्वाद ले रहे हैं.... यही हमारा परमात्मतत्त्व को नमस्कार है। अन्तर्मुख परिणति के द्वारा ही परमात्मतत्त्व को सच्चा नमस्कार या प्रणाम होता है। बहिर्मुख परिणति के द्वारा परमात्मतत्त्व को सच्चा प्रणाम नहीं होता।" श्री पद्मनन्दि मुनिराज कहते हैं - “परमात्मानं प्रणमामि सदा....” सदा परमात्मतत्त्व को प्रणाम करता हूँ। पूर्व में अनन्त काल में जिसका ख्याल नहीं था, ऐसे अपने चैतन्य स्वभाव को लक्ष में लेकर उसमें उतरकर हम हमारे चिदानन्द स्वरूप के अतीन्द्रिय आनन्द का ही स्वाद ले रहे हैं। इसके सिवाय जगत के किसी पदार्थ में हमें हमारा आनन्द भासित नहीं होता। राग में या संयोग में हम स्थित नहीं हैं, हम तो उससे च्युत होकर अपने चैतन्य में ही स्थित हैं। राग में या संयोगों में जहाँ हम नहीं हैं, वहाँ हमें मानोगे तो यह तुम्हारी मान्यता की भूल होगी। हम तो हमारे चैतन्य में ही हैं। चैतन्य का धर्म चैतन्य स्वरूप के प्रवाह में ही पकता है, राग या संयोग के प्रवाह में नहीं ? – ऐसे ही निज चैतन्य स्वभाव के आश्रय से लव-कुश मुनिराजों ने अपनी मोक्षदशा सिद्ध की है। देखो, यहाँ सम्यग्दर्शन कैसे करना और मोक्षमार्गी कैसे बनना ?
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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