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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/६४ माता कहने लगी - "हाय ! हाय ! मुझ पापिनी ने यह क्या किया ? अरे ! मैंने महासती पर कलंक लगाया, इस कारण मेरे पुत्र का जीवन भी संदेहास्पद है। मैं क्रूरभाव की धारक, वक्रपरिणामी एवं मन्दभागिनी हूँ। मैंने बिना विचारे ही यह कार्य किया है। यह नगर, यह कुल, यह विजयार्द्ध पर्वत एवं यह सेना - कोई भी पवनंजय के बिना शोभते नहीं हैं। मेरे पुत्र समान अन्य कौन है ? जिसने रावण से भी अविजित (न जीता जाने वाला) - ऐसे वरुण राजा को क्षण मात्र में ही बंदी बना लिया। हे वत्स! देव-गुरु की पूजा में तत्पर विनयवंत तू कहाँ है ? तेरे दुख से मैं तप्तायमान हूँ, हे पुत्र! तू आकर मुझसे बात कर और मेरे शोक का निवारण कर।" - इस प्रकार विलाप करती हुई वह सिर पीटने लगी। रानी केतुमति के करुण-विलाप से सारा कुटुम्ब शोकाकुल हो गया। राजा प्रहलाद भी अश्रुधारा बहाने लगे। तत्पश्चात् राजा प्रहलाद ने सकुटुम्ब प्रहस्त के नेतृत्व में कुमार पवनंजय की खोज करने हेतु विचार किया। दोनों श्रेणियों के विद्याधरों को भी आदरपूर्वक खोज के लिये आमंत्रित कर लिया। सभी आकाशमार्ग से कुँवर की खोज हेतु निकल पड़े, क्या पृथ्वी और क्या घनघोर जंगल, क्या पर्वत और क्या गुफा - वे सर्वत्र कुमार की खोज करने के लिये विचरने लगे। राजा प्रहलाद का एक दूत राजा प्रतिसूर्य के समीप गया और उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त से अवगत कराया, जिसे सुनकर प्रतिसूर्य को बहुत शोक हुआ। अंजना को जब ये समाचार विदित हुये तो उसे पहले की अपेक्षा अधिक दुख हुआ। वह आँखों से अश्रुधारा बहाती हुई रुदन करने लगी- “हा नाथ ! मेरे प्राणाधार !! मेरा चित्त आप ही के प्रति समर्पित है, तथापि इस जन्मदुखयारी को छोड़कर आप कहाँ चले गये ? ऐसा भी क्या क्रोध कि समस्त विद्याधरों से अदृश्य हो गये। एक बार पधारकर अमृतवचन बोलो। इतने दिन तक तो आपके दर्शन की अभिलाषा से प्राणों को टिकाये रखा, अब भी यदि आपके दर्शन न हों तो इन प्राणों से
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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