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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/६२ इस प्रकार भ्रमण करते हुये वे भूतरुवर वन में पहुंचे और वहाँ पहुँचते ही हाथी से उतर पड़े। जिस तरह मुनिजन आत्मा का ध्यान करते हैं, इसी तरह वह भी अपनी प्रिया का ध्यान करने लगे। हथियारादि सब सामग्री जमीन पर डाल दी और हाथी से कहने लगे - “हे गजराज ! अब तुम स्वच्छन्दता पूर्वक इस वन में भ्रमण करो।" किन्तु हाथी ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया और वह वहीं विनयपूर्वक खड़ा हो गया। उसे सम्बोधित करते हुये कुमार फिर कहने लगे – “हे गजेन्द्र ! इस नदी के किनारे विशाल वन है, तुम वहीं घास का सेवन करो और वन में स्थित हाथियों के समूह के नायक होकर यत्र-तत्रसर्वत्र विचरण करो, अब तुम स्वतन्त्र हो।" लेकिन वह हाथी तो कृतज्ञ था, स्वामी भक्त था, अतः जैसे सच्चा भ्राता कभी भी अपने भाई का संग नहीं छोड़ता; उसी प्रकार उस हाथी ने कुमार के संग का त्याग नहीं किया, वह भी उदास-चित्त हो कुमार के समीप ही निवास करने लगा। पवनंजय कुमार अत्यन्त शोकसंतप्त हो रहे हैं, उनका चित्त एक मात्र अंजना सुन्दरी के ही चिन्तवन में लगा हुआ है। वे सोच रहे हैं – “यदि मेरी प्राणप्रिया अंजना मुझे प्राप्त नहीं हुई तो मैं भी इसी वन में प्राणों का परित्याग कर दूंगा।" 367
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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