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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/६० करने लगे। उनके मन में अनेक प्रकार की आशंकायें उत्पन्न होने लगी"अरे ! यह कोमल शरीरवाली अंजना शोक-संतप्त हो कहाँ गयी होगी, जिसके हृदय में सदैव ही मेरा ध्यान रहता था, वह विरहताप से तप्त हो सघन वन में किस तरफ गयी होगी ? वह सत्यवादी, निष्कपट, धर्मधारक और गर्भ के भार सहित कदाचित् वसंतमाला से बिछुड़ गयी होगी तो ? कहीं वह पतिव्रता श्राविका राजकुमारी शोक के कारण अन्धी तो नहीं हो गयी ? अथवा विकट वन में परिभ्रमण करते हुये भूखी-प्यासी कहीं अजगरों के स्थल गहन कुएँ में तो नहीं गिर गयी ? अथवा दुष्ट पशुओं की भयंकर गर्जना से भयभीत हो उस निर्दोष गर्भवती के प्राण तो नहीं छूट गये होंगे?" इस प्रकार चिन्तामग्न पवनकुमार वन में इधर-उधर भटकते हुये अंजना की शोध में तत्पर थे। उनके मन में नाना प्रकार के संकल्पविकल्प की तरंगें तरंगित हो रहीं थीं। वे विचार रहे थे – “कहीं मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारी अंजना इस घोर वन में पानी बिना कंठ सूखने से प्राण रहित तो नहीं हो गयी ? कदाचित् गंगानदी पार करते समय वह भोली राजबाला बह तो नहीं गयी ? ऐसा भी हो सकता है कि अनेक कंकड़कांटों से उसके कोमल पैर बिंध गये हों और उसमें एक कदम चलने की शक्ति भी न रही हो ? कौन जाने क्या दशा हुई होगी? कदाचित् महादुख के कारण गर्भपात हो गया हो और जिनधर्म भक्त वह सती अत्यन्त विरक्त भाव से आर्यिका ही बन गयी हो ?" इस प्रकार मन में प्रवर्तित अनेक प्रकार के अन्तर्द्वन्द्वों सहित परिभ्रमण करते-करते पवनकुमार उसी गुफा के समीप पहुँचे, जहाँ पहले अंजना का निवास था। गुफा में प्रवेश करते ही पवन ने देखा कि वहाँ भगवान मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा विराजमान है। जिनबिम्ब को देखते ही कुमार को विस्मय हुआ, वह भक्तिपूर्वक जिनदेव की वन्दना कर स्तुति करने लगा -
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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