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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/५८ पवनकुमार ने भी राजमहल में पहुँचकर अपने माता-पिता को सादर प्रणाम किया। किंचित् समय राज्य सभा में बैठकर सबसे कुशल समाचार पूछे और तत्पश्चात् शीघ्र ही प्रहस्त मित्र के साथ अंजना के महल की तरफ प्रस्थान किया। किन्तु....जैसे जीव विहीन शरीर शोभास्पद नहीं लगता, उसी तरह अंजना रहित वह महल भी उन्हें मनोहर न लगा। इस कारण कुमार का मन अप्रसन्न हो गया और वह प्रहस्त से कहने लगा हे मित्र ! यहाँ तो प्राणप्रिया अंजना कहीं दृष्टिगोचर नहीं हो रही, वह कहाँ होगी ? उसके बिना तो यह महल एकदम सुनसान प्रतीत हो रहा है, अतः तुम जाकर ज्ञात करो कि वह कहाँ है ? प्रहस्त ने वहाँ प्रियजनों से पूछकर कुँवर से कहा – “हे मित्र ! अंजना के चरित्र पर संदेह करके राजमाता ने उन्हें महेन्द्रनगर भिजवा दिया।" प्रहस्त द्वारा कथित यह वृत्तान्त सुनते ही कुमार के मन में क्षोभ उत्पन्न हुआ, चित्त उदास हो गया, अत: माता-पिता से आज्ञा प्राप्त किये बिना ही उन्होंने अपने मित्र के साथ महेन्द्रनगर की तरफ प्रस्थान किया। ___ महेन्द्रनगर ज्यों-ज्यों करीब आता जा रहा था, त्यों-त्यों उनका मन प्रिया-मिलन की मधुर कल्पनाओं से आनंदित हो रहा था। प्रसन्न-चित्त कुमार ने प्रहस्त से कहा- हे मित्र ! देखो यहाँ अंजना सुन्दरी का निवास स्थान होने से यह नगर कैसा मनोहर ज्ञात हो रहा है। जैसे कैलाश पर्वत पर स्थित जिनमंदिर के शिखर शोभायमान हैं, इसी तरह यहाँ के महलों के शिखर भी शोभायमान हो रहे हैं।" -इस तरह बातचीत करते हुये दोनों मित्र नगर के समीप जा पहुंचे। ज्यों ही पवनकुमार के शुभागमन का समाचार राजा महेन्द्र को ज्ञात हुआ तो उन्होंने उनका भव्य स्वागत कर नगर में प्रवेश करवाया।
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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