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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/४७ अरे, मुनिराज ने तो कहा था कि अंजना अब तेरे सर्व दुख दूर होंगे, तब ये मुनि के वचन अन्यथा किस प्रकार हो सकते हैं ?" इस प्रकार विलाप करती हुई वसन्तमाला झूले की तरह कभी अंजना के पास जाती तो कभी गुफा द्वार पर आती। इधर गुफा द्वार से बाहर अष्टापदरूपधारी गंधर्वदेव ने अपने पंजों के प्रहार से सिंह को घायल करके भगा दिया और स्वयं अपने स्थान पर चला गया - इस प्रकार एक ही क्षण में सिंह एवं अष्टापद दोनों ही विलीन हो गये। सिंह और अष्टापद के युद्ध का स्वप्नवत् विचित्र चरित्र देखकर वसंतमाला को बहुत आश्चर्य हुआ। उपसर्ग दूर हुआ जानकर वह गुफा में अंजना सुन्दरी के समीप आयी और अत्यन्त कोमल हाथ फैरते हुए उसे आश्वासन प्रदान करने लगी। मानो उसका नया जन्म हुआ हो – इस प्रकार हितकारक वार्ता करने लगी। गुफा में ही बैठी हुई कभी तो वे धर्मकथा करतीं तो कभी भगवान की भक्ति करतीं, कभी मुनिराज को याद करतीं तो कभी याद करती कुटुम्बीजनों के बर्ताव को - इस प्रकार अर्धरात्रि व्यतीत हो गयी....। तभी अचानक उनके कान में संगीत का अत्यन्त मधुर स्वर सुनायी देने लगा। ऐसी मध्यरात्रि में सुनसान गुफा में जिनेन्द्र भक्ति की मधुर झंकार को सुनकर दोनों का आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक ही था। वे दोनों एकाग्रचित्त से उस मधुर भक्तिरस का पान करने लगीं। जैसे गरुड़ सर्प को भगा देता है, इसी प्रकार अष्टापद रूपधारी गन्धर्व भी सिंह को भगाकर रात्रि के शांत वातावरण में आनन्दपूर्वक वीणा बजाकर श्री जिनेन्द्रदेव का गुणगान कर रहा था। गंधर्वदेव गान विद्या में प्रसिद्ध होते हैं, राग के उन पचास स्थानों में वे भी प्रवीण होते हैं। गंधर्वदेव द्वारा की गई भगवान की स्तुति का सार इसप्रकार है -
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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