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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४ / ३६ महा-वन हाथी और चीतों से भरा हुआ था, सिंह की गर्जना एवं अजगर की फुंकार से महाभंयकर प्रतीत होता था - ऐसे मातंग मालिनी नामक घोर वन में अंजना अपनी सखी के साथ धीमे-धीमे पैर रखती हुई बढ़ी जा रही थी। यद्यपि वसंतमाला आकाशमार्ग से गमन करने में समर्थ थी, तथापि गर्भ-भार के कारण अंजना के चलने में असमर्थ होने से वह भी अंजना के प्रेम में बँधी उसकी छाया के समान उसके साथ-साथ ही चल रही थी । वन की भयानकता का अवलोकन कर अंजना काँप रही थी, भ्रमित हो रही थी, तब वसंतमाला उसका हाथ पकड़कर कहने लगी" अरे मेरी बहन ! तू डर मत, मेरे साथ चली आ ।” — तब अंजना सखी के कंधे पर हाथ रखकर उसके साथ-साथ चल पड़ती। पैरों में ककड़ एवं काँटे लग जाने के कारण खेदखिन्न हो विलाप करने लगती और बड़ी कठिनता से देह भी संभाले रखती, मार्ग में समागत पानी के झरनों को बड़ी कठिनाई से लांघती, बारम्बार विश्राम लेती, बारम्बार सखी धैर्य बँधाती। इस प्रकार जैसे-तैसे दोनों सखियाँ पर्वत के समीप आ पहुँची। गुफा यद्यपि पास ही थी, पर अंजना तो वहाँ तक पहुँचने में भी असमर्थ थी, अतः आँसू बहाते हुये वहीं बैठ गयी और सखी से कहने लगी- “हे सखी ! मैं तो अब थक गयी हूँ, एक कदम भी चलने के लिये मैं समर्थ नहीं हूँ। मैं तो यहीं बैठी रहूँगी, भले ही मरण हो जाये । " तब अत्यन्त चतुर वसंतमाला हाथ जोड़कर अत्यन्त मधुर स्वर में शान्तिप्रदायक वचनों से इस प्रकार कहने लगी- “हे सखी ! देखो ! अब गुफा नजदीक ही है, अतः कृपाकर यहाँ से उठो और वहाँ गुफा में निवास करो। यहाँ क्रूर जीवों का विचरण अत्यधिक मात्रा में है, अतः गर्भ की रक्षार्थ हठ का परित्याग करो। "
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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