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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/३४ परिपालन किया वह भी मुझे आश्रय न दे सकी, न यह कह सकी कि इसके गुण-दोष का निर्णय तो करो। अरे ! मेरे माता-पिता की ही यह स्थिति है, तब दूर के काका, नाना, प्रधान, सामंत एवं प्रजाजन तो कर ही क्या सकते हैं ? इसमें दूसरों का दोष भी क्या है ? मैं ही वर्तमान में दुर्भाग्यरूपी समुद्र में गिरी हुई हूँ। कौन जाने किन अशुभ कर्मोदय के कारण प्राणनाथ पधारे एवं यह दुर्दशा हुई। अरे ! प्राणनाथ जाते-जाते भी कह गये थे कि तुम्हारे गर्भ के चिन्ह प्रगट होने के पूर्व ही मैं पहुँच जाऊँगा। हे नाथ ! दयावान होकर भी आपने इस वचन को क्यों नहीं निभाया ? अरे ! सास ने भी बिना परीक्षा किये ही क्यों मेरा त्याग कर दिया, जिसके शील में संदेह हो उसकी परीक्षा के भी तो अनेक उपाय होते हैं। अरे ! जब मेरा पापोदय ही ऐसा है, तब कौन शरण हो सकता है ?"
इस प्रकार अंजना विलाप करने लगी, उसका विलाप सखी से देखा न जा सका, वह भी धैर्य खो बैठी और रोने लगी – दोनों सखियों के करुण क्रन्दन को सुनकर उनके आस-पास स्थित हिरणियाँ भी आँसू बहाने लगी। इसी दशा में बहुत समय व्यतीत हो गया, तब महा विचक्षण वसंतमाला अंजना को हृदय से लगाकर कहने लगी – “हे सखी ! तुम शान्त हो जाओ। अधिक विलाप से क्या कार्यसिद्धि होने वाली है। तुम तो जानती हो कि इस संसार में कोई भी पदार्थ इस जीव के लिये शरण प्रदाता नहीं है, माता-पिता भी शरण नहीं हैं।"
सर्वज्ञ वीतराग देव एवं निर्ग्रन्थ गुरु ही सच्चे माता-पिता