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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/३२ की धारक है - धर्माचरण में सदैव तत्पर रहती है। उसकी सास ने तो उसे निष्कासित कर ही दिया, अब यदि आप भी उसे शरण प्रदान नहीं करेंगे तो वह किसकी शरण अंगीकार करेगी।". जिस तरह सिंह से भयभीत हिरण गहन वन की शरण ग्रहण करता है, उसी प्रकार सास द्वारा प्रताड़ित यह भोली-भाली निष्कपट अंजना आपकी शरण में आयी है, अभी तो वह दुखी एवं विह्वल हो रही है। अपमान रूप आताप से उसका अन्तःस्थल संतप्त है। इस समय भी यदि वह आपके आश्रित रहकर शान्ति प्राप्त नहीं करेगी तो कहाँ शान्ति प्राप्त करेगी? द्वारपाल द्वारा रोके जाने के कारण वह अत्यन्त लज्जित होकर राजद्वार पर मुँह ढंककर खड़ी-खड़ी बिलख रही है। आपके स्नेह के कारण वह सदा आपकी लाड़ली रही है और केतुमति की क्रूरता तो जगतप्रसिद्ध है, अत: हे राजन् ! आप.दया करके शीघ्र ही निर्दोष अंजना का महल में प्रवेश कराइये।" इस प्रकार मनोत्साह सामंत ने अनेक प्रकार के न्यायपूर्ण वचन कहे, पर राजा ने उन पर किंचित् भी ध्यान नहीं दिया। जैसे कमल पत्र पर पानी नहीं ठहरता, उसी प्रकार राजा महेन्द्र के हृदय पर इन न्यायपूर्ण वचनों का कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ। राजा महेन्द्र ने सामन्त से पुनः कहा - "हे सामंत ! इसकी सखी वसन्तमाला तो सदा से ही इसके साथ रहती आयी है, अतः कदाचित् अंजना के स्नेहवश वह सत्य बात नहीं कह सकती, तब अपने को यथार्थता का परिज्ञान किस प्रकार संभव है ? अंजना का सतीत्व संदेहास्पद स्थिति में है, अत: उसे शीघ्र ही नगर के बाहर कर दो। यदि यह बात प्रगट हो गयी तो हमारे उज्ज्वल कुल में कलंक लग जायेगा। यह बात मैं पूर्व में भी अनेक बार सुन चुका हूँ कि वह सदा ही अपने पति की कृपाविहीन रही है। जब वह उसकी ओर देखता तक नहीं था, तब उससे गर्भोत्पत्ति किस प्रकार संभव है ? अत: निश्चित ही अंजना दोषी है, उसे मेरे राज्य
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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