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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/२८ समय पाकर सती अंजना के गर्भ के लक्षण प्रगट होने लगे, उसका मुख इस तरह श्वेत हो गया, मानो गर्भ में स्थित हनुमान के उज्ज्वल यश को ही प्रगट कर रहा हो। ऐसे लक्षणों द्वारा सती अंजना को गर्भवती जानकर उसकी सास केतुमति पूछने लगी - “अरी अंजना ! यह पाप कार्य तूने किसके साथ किया है ?" अंजना ने अत्यन्त विनयपूर्वक हाथ जोड़कर पति-आगमन का सम्पूर्ण वृत्तान्त अपनी सास को सुना दिया, किन्तु निष्ठुर हृदयी केतुमति को उस पर तनिक भी विश्वास नहीं हुआ। अत: वह बिना विचारे ही क्रोधावेश में आकर कर्कशवचन कहने लगी - - 2 "रे पापिनी ! मेरा पुत्र तो तुझसे इतना विरक्त था कि तेरी छाया तक नहीं देखना चाहता था, तेरी बात तक सुनना उसे पसंद न था, फिर वह तो हमसे आज्ञा प्राप्त कर रण-संग्राम में गया है, वह तेरे महल में कैसे आ गया ? रे निर्लज्ज ! तुझ पापिन को धिक्कार है। निंद्य-कर्म करके तूने हमारे उज्ज्वल वंश में कलंक लगा दिया है। क्या तेरी इस सखी वसंतमाला ने तुझे यही बुद्धि सुझायी है।" सास की क्रूरतापूर्ण बातों को सुनकर अंजना ने कुमार द्वारा निशानी के रूप में प्रदान किये गये कड़े एवं मुद्रिका उन्हें दिखाई, तथापि
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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