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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/२६ __ अपनी भूल के कारण लज्जित पवनकुमार ने बारम्बार अंजना सुन्दरी से कुशल समाचार पूछे और कहा – “हे प्रिय ! मैंने व्यर्थ ही तुम्हारा अनादर किया, इसके लिये तुम मुझे क्षमा करो। मैंने अन्यकृत अपराध का तुम पर दोषारोपण किया अब इन बातों का विस्मरण करो। अपने अपराध की क्षमा प्राप्ति हेतु मैं बारम्बार तुमसे याचना करता हूँ, तुम मुझ पर प्रसन्न होओ।" - ऐसा कहते हुये पवनकुमार ने उसके प्रति बहुत स्नेह प्रदर्शित किया। अपने प्राणनाथ का अपूर्व स्नेह देखकर महासती अंजना अत्यन्त प्रसन्नता पूर्वक कहने लगी- “हे नाथ ! मेरे प्रति इस तरह अनुनय-विनय करना आपके लिये अनुचित है। मेरा हृदय तो सदैव आपके ध्यान से संयुक्त ही था, आप तो सदा से ही मेरे हृदय में विराजमान थे। आपके द्वारा प्रदत्त अनादर भी मुझे आदरवत् ही प्रतीत होता था। अब तो आपने मुझ पर अपार कृपा कर अत्याधिक स्नेह प्रदर्शित किया- इसकी मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है, मेरे तो सारे ही मनोरथ सिद्ध हो गये हैं। इस प्रकार दोनों में परस्पर स्नेहपूर्वक वार्तालाप एवं समागम के साथ रात्रि व्यतीत हुई। प्रात:काल होने के कुछ समय पूर्व ही प्रहस्त ने आकर कुमार से कहा – “हे मित्र ! अब चलने में शीघ्रता करो। अपनी प्राणप्रिया का विशेष सम्मान वापस आकर करना, अभी तो गुप्तरूप से ही वापस सेना में पहुँचना है। मानसरोवर पर अन्य राजागण आदि सभी साथ चलने के लिये तुम्हारा इन्तजार कर रहे होंगे। इतना ही नहीं, स्वयं महाराज रावण भी अपने मंत्रियों से तुम्हारे आगमन के विषय में जानकारी प्राप्त करते रहते हैं। अत: अब विलम्ब करना किसी भी तरह उचित नहीं, आप शीघ्र ही अपनी प्राणप्रिया से विदा लेकर आओ।" इतना कहकर प्रहस्त तो वापस बाहर चला गया। तब अंजना से विदा माँगते हुये पवनंजय ने कहा – “हे प्रिये ! अब मैं जा रहा हूँ, तुम चिन्ता मत करना, कुछ दिनों पश्चात् ही मैं वापस आ जाऊँगा, तब तक सानन्द रहना।"
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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