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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/२२ थे, वह बारम्बार कमल के छिद्र में उसे शोध रही थी, कमल के रस का स्वाद भी उसे विषतुल्य प्रतीत हो रहा था, पानी में दृष्टिगोचर होने वाले अपने ही प्रतिबिम्ब को अपना प्रीतम समझकर बुला रही थी, परन्तु प्रतिबिम्ब आवे कहाँ से ? इस कारण उसकी (चकवे ही की) अप्राप्ति से अत्यन्त शोकाकुल हो रही थीं। सेना के सैनिकों एवं हाथी-घोड़ों के शब्दों को सुनकर अपने पति की आशा से वह अपने चित्त को भ्रमित कर रही थी तथा किनारे पर स्थित वृक्ष पर चढ़कर आकुलतामय भाव से दशों दिशाओं का अवलोकन कर रही थी, किन्तु कहीं भी अपने पति को न देखकर धरती पर आ गिरी। बहुत समय तक चकवी की ऐसी दशा को पवनकुमार ने ध्यानपूर्वक देखा, चकवी की व्याकुलता को देखकर उनका चित्त दया से आर्त हो गया। उस समय कुमार को अंजना की याद सताने लगी, उनके मन में विचारों के तूफान चलने लगे- “अरे रे ! यह चकवी प्रीतम के वियोग में किस तरह शोकाग्नि में जल रही है, यह मनोहर मानसरोवर एवं चन्द्रमा की चन्दन-सदृश चाँदनी भी इस वियोगिनीको दावानल-सदृश दाहकारक प्रतीत हो रही है। जब यह चकवी अपने पति से एक रात के वियोग को सहन करने में असमर्थ हो रही है, तब वह महासुन्दरी अंजना किस प्रकार बाईस वर्ष से मेरे वियोग को सहन कर रही होगी। उसकी क्या दशा हुई होगी? अरे ! यह वही तो मानसरोवर है, वही तो यह स्थान है, जहाँ हमारा विवाह हुआ था।" विवाह स्थल पर नजर पड़ते ही कुमार के शोक की अभिवृद्धि हो गयी। वेसोचने लगे- “हाय ! हाय !! मैं कैसा निष्ठुर चित्त हूँ, मैंने व्यर्थ ही उस निर्दोष का परित्याग कर दिया। कटुवचन तो उसकी दासी ने कहा था, उसने तो कुछ भी नहीं कहा था; तथापि मैंने बिना विचारे दूसरे के दोष से उसका त्याग कर दिया। उस निर्दोष सती को अकारण दुख दिया, इतने वर्षों तक उसे वियोगिनी बनाये रखा। हाय ! अब मैं क्या करूँ ? घर से
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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