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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/१५ वसंतमाला की इस बात को सुनकर कुमार आनंदित हो उठे। तभी दूसरी सखी मिश्रकेशी इस प्रकार कहने लगी – “तुम पवनकुमार को पराक्रमी बतलाती हो और इस सम्बन्ध को बड़े ही गौरवपूर्ण ढंग से बखान करती हो - यह तुम्हारा अज्ञान है। कुमारी का सम्बन्ध यदि विद्युतप्रभ के साथ होता तो बात ही कुछ और होती। अरे ! कहाँ विद्युतप्रभ और कहाँ पवनकुमार – दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर है। तुम्हें ज्ञात होगा कि पहले सबका विचार विद्युतप्रभ के साथ सम्बन्ध करने का ही था, पर जब महाराज ने सुना कि वे तो कुछ ही समय पश्चात् मुनि होनेवाले हैं, तब इस प्रस्ताव को निरस्त कर दिया गया; किन्तु वास्तव में यह ठीक नहीं हुआ। अरे ! विद्युतप्रभ जैसे महापुरुष का संयोग तो एक क्षण मात्र के लिये भी श्रेष्ठ है, अन्य क्षुद्र पुरुष के दीर्घकालीन संयोग की अपेक्षा । सख़ी की अपमान जनक बात सुनते ही पवनकुमार क्रोधित हो. उठे, वे विचारने लगे - "अंजना को मुझसे किंचित् भी स्नेह नहीं है। लगता है विद्युतप्रभ से ही इसका स्नेह है, तभी तो सखी के ऐसे वचन सुनकर भी यह मौन है।" ऐसा विचारकर उन्होंने क्रोधित हो म्यान से तलवार निकाल ली, किन्तु तभी प्रहस्त मित्र ने उन्हें रोकते हुए कहा- “मित्र ! यहाँ हम गुप्तरूप से आये हैं और इसी तरह वापस चलना चाहिये। प्रहस्त के कथनानुसार कुमार ने क्रोधित दशा में ही वहाँ से प्रस्थान कर दिया, किन्तु वे अंजना की तरफ से एकदम उदास चित्त हो गये, अत: उन्होंने उसके परित्याग का निर्णय कर लिया। देखो परिणामों की विचित्रता, कुछ देर पूर्व जिसे देखे बिना चैन नहीं था, अब उसी का मुख देखना भी असहनीय प्रतीत होने लगा, रे संसार....! अपने निवास पर आते ही पवनकुमार ने प्रहस्त से कहा – “हे मित्र ! अपना स्थान अंजना के निवास के नजदीक है, अतः अब अपने
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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