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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/७६ सकता। कोई देव, इन्द्र या सुरेन्द्र वगैरह रक्षा करते हैं। यह भी कथनमात्र है; क्योंकि वे जब स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकते तो दूसरे की रक्षा कहाँ से करेंगे। अनित्यता रूप सदा परिणमते पदार्थ को कोई रोकने में समर्थ नहीं है.... इसलिए हे आत्मन्! तू इन सबका शरण लेने की बुद्धि को छोड़ और अपने अविनाशी चैतन्य स्वरूप आत्मा की शरण ले – ये ही सच्ची शरण है। (३) संसार भावना-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पंच परावर्तन मयी इस संसार में यह आत्मा निजस्वरूप को समझे बिना चक्कर लगा रहा है, कभी एक गति में तो कभी दूसरी गति में, कभी राजा तो कभी रंक, कभी देव तो कभी नारकी, कभी द्रव्यलिंगी साधु तो कभी कषायी- इस प्रकार बहुरूपिया होकर घूम . रहा है। पंचविध परावर्तन में एक-एक परावर्तन का अनंत काल है। वह पंच परावर्तन इस जीव ने एक बार नहीं, अपितु अनंत बार पूरे किये हैं, तो भी विषयलालसा से उसका चित्त तृप्त नहीं हुआ तो अब कैसे होगा ? स्व-विषय को भूलकर तू सदा अतृप्तरूप ही मरा है। इसलिये हे आत्मा ! अब तू विषय-लालसा छोड़कर आत्मस्वरूप में अपने चित्त को स्थिर कर। इस दुखमय संसारचक्र से छूटने का एकमात्र उपाय यही है कि तू बाह्य-विषयों के मोह को छोड़कर आत्म-ध्यान में लीन हो जा। (४) एकत्व भावना - यह जीव अकेला ही आया है, अकेला ही जन्ममरण के दुख भोगता है, अकेला ही गर्भ में आता है, अकेला ही शरीर धारण करता है, अकेला ही बालक-जवान-वृद्ध होता है, अकेला ही मरता है; इस जीव के सुख-दुख में कोई भी साथी नहीं है। अरे जीव ! जिस कुटुम्बादि को तू अपना समझता है, वे तुम्हारे नहीं हैं। कुटुंब वगैरह तो दूर, परन्तु ममता से जिस देह को तूने पुष्ट किया है, जिसके साथ चौबीसों घन्टे रहा, वह शरीर भी साथ में नहीं जाता, तब दूसरा कौन साथ जायेगा। इसलिए हे आत्मा ! तुम क्यों दूसरों के लिए पाप का बोझा अपने सिर बाँध रहे हो ? तुम तो सदा अकेले ही हो, इसलिए सबका मोह छोड़कर एक अपने आत्मा का ही चिन्तन करो, जिससे तुम्हारा हित होगा। जीव अकेला ही मरे स्वयं, जीव अकेला जन्मे अरे। जीव अकेला जन्मे-मरे, जीव अकेला सिद्धि लहे ॥
SR No.032252
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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