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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/४५ "लेकिन कलाकार ! आखिर बात क्या हो गयी ? यह तो बताओ?" तब अंगारक बोला – “राजन् ! आपके इस मणि के निमित्त से आज एक ऐसी घटना घट गई है कि जिसका वृत्तान्त कहना मेरे लिए संभव नहीं है, परन्तु इतना अवश्य है कि इस मणि को आभूषण में जड़ने से मुझे जो पुरस्कार आपसे मिलता, उससे भी महा विशेष अनन्त पुरस्कार आज मुझे मिल गये हैं। राजन् ! अब मैं रत्नत्रय मणि से अपने आत्मा को आभूषित करने को जा रहा हूँ....।" राजा ने कहा – “परन्तु मेरे इस एक मणि को जड़ने का काम तो पूरा कर दो...." “नहीं राजन् ! अब यह अंगारक पहले जैसा कलाकार नहीं रह गया है, अब तो वह अपने आत्मा में ही सम्यक्त्व आदि मणि जड़ने के लिये जा रहा है....।" - ऐसा कहकर अंगारक राजभवन से चला गया। राजा तो दिग्भ्रमित होकर बाहर की तरफ देखते ही रह गये। बहुत विचार करने पर भी इस घटना के रहस्य को वे सुलझा नहीं सके। दूसरे दिन, जब नगरी के धर्मप्रेमी महिला-पुरुष श्री ज्ञानसागर मुनि महाराज के दर्शन करने आये....तब उनके साथ एक और नये महाराज को देखकर नगरजन विस्मित हो गये....और सबने भक्ति से उनके चरणों में भी अपना सिर झुकाया, परन्तु अरे ! यह तो हमारा सोनी.... कलाकार अंगारक है ! अपनी नगरी के ही एक नागरिक को इस प्रकार मुनिदशा में देखकर सबको महान आश्चर्य हुआ....और शीघ्र ही यह बात सारी नगरी में बिजली की तरह फैल गई। राजा को भी जब यह खबर लगी तो वे भी शीघ्रता से वहाँ पहुँच गये....मुनिराज को वन्दना आदि करके राजा ने पूछा - "प्रभो ! कल का कलाकार आज अचानक अध्यात्मयोगी बन •
SR No.032252
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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