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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/४३ " वत्स अंगारक ! दुःखी मत हो । सोच-विचार छोड़ दे । इज्जत और लक्ष्मी का मोह ऐसा ही है, जो जीव को अविचारी बना देता है । वत्स अंगारक ! जो होना था, सो हो गया.... अब शोक करना छोड़ दे और....अपना आत्महित साधने के लिए तत्पर हो । " पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए अंगारक के हृदय में मुनिराज के वचनों ने अमृत का सिंचन किया.... उसने हाथ जोड़कर मुनिराज से निवेदन किया - "प्रभु ! मुझे क्षमा करो। मोह से अंधा होकर मैंने अत्यन्त घृणित कार्य किया है.... क्रोध से मैं अविचारी बन गया था.... प्रभु ! मुझे क्षमा करके इस भयंकर पाप से मेरा उद्धार करो। हे नाथ ! आपश्री के आहार दान के समय मैंने इस मणि को पेटी के ऊपर रख दिया था और उसी समय ऊपर बैठा यह मोर भी हमारे घर में घुस गया था और उस चमकती मणि को खाने की वस्तु समझकर गटक गया था.... परन्तु वह मणि भाग्यवश उसके गले में ही अटक गयी....लेकिन मैंने बिना देखे .... बिना विचारे आप पर शंका की.... आप पर प्रहार करने के लिए लकड़ी उठाई .... परन्तु प्रभु ! सद्भाग्य से .... वह मोर आपके पीछे-पीछे ही यहाँ आकर इस वृक्ष पर बैठ गया था.... और मेरे द्वारा आपको मारने हेतु लकड़ी ऊपर उठाने पर उसके गले पर लकड़ी लगी और गले में से वह मणि नीचे गिर पड़ा....इस प्रकार आपकी रक्षा हो गई.... मोर के भी प्राण बच गये.... और मेरे इन पापी हाथों से एक वीतरागी योगी की हिंसा होते-होते बच गई । " यह सब बोलते-बोलते पश्चाताप का भाव होने से अंगारक के पाप मानों पानी-पानी होकर आँखों में से अश्रुधारा के रूप में बाहर निकल रहे थे। थोड़ी देर तक चुप बैठकर उसने पुनः श्री मुनिराज से कहा - "प्रभो ! हे प्रभो !! आपके अमृतमयी वचनों से आज मैंने नया जीवन प्राप्त किया है। नाथ ! इस पापमय संसार से अब मेरा उद्धार
SR No.032252
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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