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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/३८ “वाह ! मेरी कला का यह एक सर्वोत्तम नमूना बनेगा और महाराज भी इसे देखकर अत्यन्त प्रसन्न होंगे।" इस प्रकार संतोष की श्वाँस लेकर जब उसने अपना मस्तक ऊपर उठाया तो देखता क्या है कि उसके घर के आंगन के सामने से एक नग्न दिगम्बर मुनिराज गमन कर रहे हैं। “मानो उनकी आँखों से परम शान्त रस की वर्षा हो रही हो....मानो उनकी भव्यमुद्रा पर वीतरागता छा गई हो....मानो उनके समस्त पाप गल गये हों....अहो ! उनके आत्मा की पवित्रता की क्या बात कहना ? अरे, उनके तो चरणों से स्पर्शित धूल भी इतनी पवित्र है कि असाध्य रोगों को दूर कर दे। उनके दर्शन मात्र से मानवों का मन पवित्र हो जाता है और उनके हृदय का पाप धुल जाता है। इन रत्नत्रय धारक योगीराज के आत्मतेज के सामने इस पद्मरागमणि का तेज भी फीका लग रहा है।" ऐसे चारणऋद्धिधारी महा मुनिराज गोचरीवृत्ति से आहारदान हेतु गमन कर रहे हैं....उन्हें देखकर अंगारक शीघ्र ही उनके समीप गया और उनके चरण-कमलों पर झुक गया....तथा अनायास ही उसके मुख से उद्गार निकलने लगे - “अहो ! आज मेरे भाग्य खिल उठे....आज मैं कृतार्थ हो गया....हे प्रभु ! हे मुनिराज ! आपके चरण-कमलों की धूल से आज मैं पावन हो गया....मेरा घर भी पवित्र हो गया....मेरे भव-भव के पाप नष्ट हो गये । हे नाथ ! पधारो....पधारो....पधारो....।" इस प्रकार मुनिराज का पड़गाहन करके नवधाभक्तिपूर्वक अंगारक ने आहारदान दिया आहारदान के समय मुनि-भक्ति में वह इतना तल्लीन था कि घर में इस बीच क्या घटना घट गई, उसे कुछ पता न चला। आहार के बाद महामुनिराज तो वापस वन में चले गये और आत्मध्यान में लीन हो गये। ऐसे महान पवित्रात्मा शुद्धोपयोगी, साधुशिरोमणि को आहार देने से आज अंगारक कृतार्थ हो गया था....उसका चित्त अत्यन्त प्रसन्न था।
SR No.032252
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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