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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ३/३० पवित्र स्वाँग मात्र देखने के लिए नहीं होता। एक बार जिसने धारण किया, उसके बाद फिर गृहस्थ नहीं होता । साधु का स्वाँग धारण करना कोई मजाक नहीं है, उसके अन्दर एक महान आत्मभावना समाहित होती है। ऐसे साधु का स्वाँग धारण करने के लिए पहले उसने दृढ़ होकर वैराग्य भावनाओं का चिंतन किया और अपने हृदय को संसार से विरक्त बना लिया। उसका पूरा समय, आत्म-चिंतन और आत्म भावनाओं में बीतने लगा | वह विरक्ति को वास्तविक रूप देना चाहता था । स्वपर के भेद - विज्ञान रूप तत्त्वाभ्यास सहित उसने संसार विरक्ति के जोरदार अभ्यास में प्रवीणता प्राप्त कर ली । उसके अन्तर में उत्साह तो था ही कि अहो ! साधुदशा का सुंदर अवसर आया है। संसार के पाप स्वाँग तो बहुत धारण किये, अब धर्म का सच्चा स्वाँग करने का धन्य अवसर आया है। ऐसी धर्मभावनापूर्वक थोड़े समय में उसने अपने अंतर में पूर्ण विरक्ति जागृत कर ली.... और अब वह गृहजाल का बंधन तोड़ने में समर्थ हो गया था । सम्यक्त्व और आत्मज्ञान के प्रकाश से उसकी आत्मा जागृत हो गई, वासना की बेड़ियाँ टूट गयीं । हृदय शांत रस से भीग गया था । उनके जीवन में अचानक आये परिवर्तन को देखकर परिवारजन आश्चर्यचकित रह गये । वैराग्य से भरपूर साधु स्वाँग में प्रवेश करने की पूर्ण तैयारी करने के बाद ब्रह्मगुलाल ने अपने माता-पिता और पत्नि के पास जाकर सारा रहस्य प्रकट किया और साधु होने के लिए मंजूरी माँगी । वे सभी तो बहुत मोहासक्त थे.... ब्रह्मगुलाल के वैराग्य की बात सुनकर उनका मोह उमड़ पड़ा और उन्होंने एक बार तो ब्रह्मगुलाल को पुन: मोहसागर में ले जाने का प्रयत्न किया, परन्तु उसने तो अपने आत्मा को मोहसागर से बहुत ऊँचा उठा लिया था, अब मोह की लहरें उसे स्पर्श नहीं कर सकती थीं। अपने पवित्र भावनात्मक उपदेश के द्वारा उसने अपने
SR No.032252
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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