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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/२२ दे रहे हैं, वह प्रकाश तुम्हारा चैतन्यप्रभु ही है। यह राग है, यह द्वेष है। इस प्रकार अज्ञान - अंधकार में वह कहाँ से जानने में आयेगा ? यह तो चैतन्य - प्रकाश में ही जानने में आता है और यह चैतन्य - प्रकाश जहाँ से आता है, वही तुम्हारा चैतन्यप्रभु है.... राग से पार चैतन्य गुफा में तुम्हारा प्रभु विराज रहा है।" 66 उस चेतना ने राग से भिन्न होकर, जब चैतन्य गुफा में देखा, तब तो वह आश्चर्यचकित रह गई “ अहो ! चैतन्य - प्रकाश से जगमगाता, यह है मेरा चैतन्य प्रभु !!” - ऐसा देखते ही वह अपने चैतन्य प्रभु को पाकर अपार आनंदित हुई। उसने अपने ही प्रभुस्वरूप का स्वानुभव किया । हे आत्म-शोधक मुमुक्षुओ ! तुम भी बिना झिझक अपने चैतन्यप्रभु को खोजो.... वह तुम्हें शीघ्र ही अवश्य मिलेगा.... यह जो राग-द्वेष- मोह का जाल दिखाई देता है, वह उसी का प्रतिबिम्ब है.... क्योंकि चैतन्य प्रभु के अस्तित्व बिना राग-द्वेष भाव संभव नहीं हैं। इसलिए जिन प्रदेशों में से ये राग-द्वेष-मोह उठे हैं, उन्हीं प्रदेशों में तुम्हारा चैतन्य प्रभु विराज रहा है.... राग-द्वेष - मोह में मत अटक, परन्तु उस डोरी को पकड़। उसका छोर जिसके हाथ में है, उसके पास जा .... . वहीं तुम्हारा चैतन्य - प्रकाशी साक्षात् चैतन्य प्रभु विराजमान है.... अब यह तुमसे छिपा नहीं रह सकता....चैतन्य गुफा में प्रभु प्रकट विराजमान है और अपनी अचिन्त्य अपार महिमा को धारण कर रहा है.... उसको देखने से, मिलने से, अपार सुख होगा। अहो ! मेरा चैतन्य प्रभु मुझे मिलेगा.... फिर वह मुझसे जुदा नहीं होगा । - इसप्रकार चैतन्यप्रभु के साथ मिलन से मुझे अपार आनंद हुआ। मेरो प्रभु नहिं दूर देशांतर, मोहि में है मोहि सूझत अन्दर ।
SR No.032252
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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