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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/६८ आकाश जैसे निर्मल हैं और पवन जैसे असंगी हैं, अप्रमत्तभाव में झूल रहे हैं और सिद्ध के समान आत्मिक-आनंद का अनुभव कर रहे हैं। गुफा में एकाएक ऐसे मुनिराज को देखते ही दोनों की खुशी का पार नहीं रहा। “अहो ! धन्य मुनिराज !" - ऐसा कहती हुई हर्षपूर्वक वे दोनों सखी मुनिराज के पास गईं। मुनिराज की वीतरागी मुद्रा देखते ही वे जीवन के सर्व दुःखों को भूल गयीं। भक्तिपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर हाथ जोड़कर नमस्कार किया। ऐसे वन में मुनि जैसे परम बाँधव मिलते ही खुशी के आँसू निकलने लगे...... और नजर मुनिराज के चरणों में रुक गयी। तब वे हाथ जोड़कर गद्गद् भाव से मुनिराज की स्तुति करने लगीं। “हे भगवान ! हे कल्याणरूप! आप संसार को छोड़कर आत्महित की साधना कर रहे हो......जगत के जीवों के भी आप परम हितैषी हो।......अहो, आपके दर्शन से हमारा जीवन सफल हुआ......आप महा क्षमावंत हो, परम शांति के धारक हो, आपका विहार जीवों के कल्याण का कारण है।" ऐसी विनयपूर्वक स्तुति करके, मुनि के दर्शन से उनका सारा भय दूर हो गया.....और उनका चित्त अत्यंत प्रसन्न हुआ। ध्यान टूटने पर मुनिराज ने परमशांत अमृतमयी वचनों से धर्म की महिमा बताकर उनको धर्मसाधना में उत्साहित किया और अवधि-ज्ञान से मुनिराज ने 'अंजना के उदर में स्थित चरमशरीरी हनुमान के वृत्तान्त सहित पूर्वभव में अंजना द्वारा जिन-प्रतिमा का अनादर करने से इस समय अंजना के ऊपर यह कलंक लगा है'- यह बताते हुए कहा - ___ “हे पुत्री ! तू भक्ति पूर्वक भगवान जिनेन्द्र और जैनधर्म की आराधना कर.......इस पृथ्वी पर जो सुख है, वह उसके ही प्रताप से तुझे मिलेगा। अत: हे भव्यात्मा! अपने चित्त में से खेद (दुःख) छोड़कर प्रमाद रहित होकर धर्मकार्य में मन लगा।"
SR No.032251
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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