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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/४० अहा ! धन्य है उन मुनिराजों को, उनके जीवन को !' इधर सुकौशल मुनि के शरीर को खाते-खाते वाघिन की नजर उनके हाथ के ऊपर पड़ी...... हाथ में एक चिन्ह देखते ही वह आश्चर्यचकित रह गयी। उसके मन में विचार आया कि यह हाथ मैंने कहीं देखा है.... और तुरन्त ही उसे पूर्वभव का जातिस्मरण ज्ञान हुआ। "अरे, यह तो मेरा पुत्र ! मैं इसकी माता। अरे रे, अपने पुत्र को ही मैंने खा लिया।" - इसप्रकार के पश्चाताप के भाव से वह वाघिन रोने लगी, उसकी आँखों में से आँसुओं की धारा बहने लगी। उसी समय कीर्तिधर मुनिराज का ध्यान टूटा और उन्होंने वाघिन को उपदेश दिया – “अरे वाघिन ! (सहदेवी) पुत्र के प्रति विशेष प्रेम के कारण ही तेरी मृत्यु हुई, उस ही पुत्र के शरीर का तूने भक्षण किया ? अरे रे, इस मोह को धिक्कार है। अब तुम इस अज्ञान को छोड़ो और क्रूर भावों को त्यागकर आत्मा को समझकर अपना कल्याण करो !" मुनिराज के उपदेश को सुनकर तुरंत ही उस वाघिन ने धर्म प्राप्त किया, आत्मा को समझकर उसने माँस-भक्षण छोड़ दिया, फिर वैराग्य से संन्यास धारण किया और मरकर देवलोक में गई। यहाँ श्री कीर्तिधर मुनि भी केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष गये। . (राजा रघु और राम आदि महापुरुष भी कीर्तिधर राजा के वंश में ही हुए हैं। पाठको ! धर्मात्मा-ज्ञानियों के जीवन में वैराग्य समाहित होता है, उसे इस कहानी से समझना चाहिये और आत्मा को समझकर ऐसा वैरागी-जीवन जीने की भावना करनी चाहिये । उस वाघिन जैसे हिंसक प्राणी ने भी आत्मज्ञान प्राप्त कर किसप्रकार अपना कल्याण किया, उसे जानकर हे भव्य जीवो ! तुम भी मिथ्यात्व आदि समस्त प्रकार के पाप भाव छोड़कर आत्मज्ञान प्राप्त करो।
SR No.032251
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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