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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/३६ राजकुमार के प्रश्न को सुनते ही धायमाता का हृदय एकदम भर आया और रोते-रोते उसने कहा- “बेटा ! ये महापुरुष और कोई नहीं, तुम्हारे पिताजी हैं। वे इस अयोध्या नगरी के महाराजा कीर्तिधर स्वयं हैं और साधु हो गये हैं। अरे, जो कभी स्वयं इस राज्य के स्वामी थे, आज उन्हें उनके ही सेवक, उनके ही राज्य में, उन्हीं का अनादर कर रहे हैं। इस अयोध्या नगरी के राजमहल में कभी किसी साधु का अनादर नहीं हुआ, किन्तु आज साधु हुए महाराज का अनादर राजमाता द्वारा ही हो रहा है, राजमाता अपने स्वामी और नग्न दिगम्बर साधु को मैला-कुचैला भिखारी जैसा कहकर तिरस्कार कर रही है। " धामाता ने सुकौशल से आगे कहा- “बेटा ! जब तू छोटासा बालक था, तभी वैराग्य धारण करके तुम्हारे पिता जैन साधु हो गये थे। वे साधु महात्मा ही इससमय नगरी में पधारे हैं.... आहार के लिए पधारे कोई भी मुनिराज अपने आँगन से कभी वापिस नहीं गये । पुत्र को राज्य सौंप कर दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करें- ऐसी परम्परा तो असंख्यात पीढियों से अपने वंश में चली आ रही है और उसी के अनुसार तुम्हारे पिता ने तुम्हें राज्य सौंप कर जिनदीक्षा धारण की है । " - जब धायमाता ने ऐसा कहा, तब उसे सुनते ही सुकौशलकुमार को बहुत आश्चर्य हुआ । "अरे, यह मेरे पिताजी! ये भिखारी नहीं, ये तो महान सन्त महापुरुष हैं। महाभाग्य से आज मुझे इनके दर्शन हुए। " ऐसा कहते हुए राजकुमार सिर का मुकुट और पैर में जूते पहने बिना ही नंगे सिर और नंगे पैर ही नगर के बाहर मुनिराज (पिता) की ओर दौड़े.... और उनके पास से धर्म की विरासत लेने के लिए दौड़े.... . जैसे कि संसार के बंधन तोड़कर मुक्ति की ओर दौड़ रहे हों ? इसप्रकार वे मुनिराज के पास पहुँचे.... और उनके चरणों में नमन किया.... आँख में से आँसू की धारा बहने लगी ।
SR No.032251
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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