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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/२२ 'शरीर अपवित्र है और विषय-भोग क्षणभंगुर है' -ऐसा जानकर ऋषभदेव आदि तीर्थंकर तथा भरत आदि-चक्रवर्ती विषय-भोगों के धाम गृह-परिवार को छोड़कर वन में चले गये और चैतन्य में लीन होकर मोक्ष प्राप्त किया। मैं भी अब उनके बताये मार्ग पर ही चलूँगा । मैं मूर्ख बनकर अब तक विषयों में ही फँसा रहा। अब एक क्षण भी इस संसार में नहीं रहूँगा।" इसप्रकार सगर चक्रवर्ती वैराग्य की भावना कर ही रहे थे कि वहाँ उनकी नगरी में महाभाग्य से दृढ़वर्मा नामक केवली प्रभु का आगमन हुआ। सगर चक्रवर्ती अत्यंत हर्षोल्लास के साथ उनके दर्शन करने गये और प्रभु के उपदेशामृत ग्रहण करके राजपाट छोड़कर जिनदीक्षा धारण की। चक्रवर्ती पद छोड़कर अब चैतन्य के ध्यानरूपी धर्मचक्र से वे सुशोभित होने लगे उन्हें मुनिदशा में देख कर उनका देवमित्र (मणिकेतु देव) अत्यंत प्रसन्न हुआ। अपने मित्र को प्रतिबोध करने का कार्य पूरा हुआ जानकर वह देव अपने असली स्वरूप में प्रकट हुआ और सगर मुनिराज को नमस्कार करके कैलाशपर्वत पर गया । वहाँ जाकर उसने राजपुत्रों को सचेत किया और कहा- “हे राजपुत्रो ! तुम्हारी मृत्यु की बनावटी खबर सुनकर तुम्हारे पिता सगर महाराज संसार से वैराग्यपूर्वक दिगम्बर दीक्षा अंगीकार कर मुनि बन गये हैं, अत: मैं तुम्हें ले जाने के लिए आया हूँ।" अहा, कैसा अद्भुत प्रसंग!! उन चरम शरीरी ६० हजार राजकुमार पिताश्री की वैराग्योत्पादक बात सुनकर एकदम उदासीन हो गये, अयोध्या के राजमहलों में वापस लौटने के लिए सभी ने मना कर दिया और संसार से विरक्त होकर सभी राजकुमार श्री मुनिराज की शरण में गये, वहाँ धर्मोपदेश सुना और एकसाथ ६० हजार राजपुत्रों ने मुनिदीक्षा धारण कर ली। वाह ! धन्य वे मुनिराज !! धन्य वे वैरागी राजकुमार !!!
SR No.032251
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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