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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/१६ । लगे। उन चक्रवर्ती के अत्यंत पुण्यवान साठ हजार पुत्र थे, वे सभी उत्तम धर्मसंस्कारी थे। एक बार किसी मुनिराज को केवलज्ञान हुआ और बहुत उत्सव मनाया गया, कितने ही देव उत्सव में आये। उनमें मणिकेतु नाम का देव जो सगर चक्रवर्ती का मित्र था वह भी आया। केवली भगवान की वाणी सुनकर उसे यह जानने की इच्छा हुई कि मेरा मित्र कहाँ है ? इच्छा होते ही उसने अपने अवधिज्ञान से जान लिया कि वह जीव पुण्योदय से अयोध्या नगरी में सगर नाम का चक्रवर्ती हुआ है। अब उस देव को पूर्व की प्रतिज्ञा याद आयी और अपने मित्र को प्रतिबोध देने के लिए वह अयोध्या आया। वहाँ आकर सगर चक्रवर्ती से कहा ___ "हे मित्र ! तुझे याद है ? हम दोनों स्वर्ग में एक साथ थे और हम दोनों ने साथ में निश्चित किया था कि अपने में से जो पृथ्वी पर पहले अवतार लेगा, उसे स्वर्ग में रहनेवाला दूसरा साथी प्रतिबोध देगा। हे भव्य ! तुमने इस पृथ्वी पर पहले अवतार लिया है, परन्तु तुम मनुष्यों में उत्तमोत्तम ऐसा चक्रवर्ती पद प्राप्त कर बहुत काल तक भोगों में ही भूले हो। अरे, सर्प के फण समान दुःखकर इन भोगों से आत्मा को क्या लाभ है ? इसमें किंचित् सुख नहीं, इसलिए हे राजन् ! हे मित्र ! अब इन भोगों को छोड़कर मोक्षसुख के लिए उद्यम करो। अरे, अच्युत स्वर्ग के दैवी वैभव असंख्य वर्षों तक भोगने पर भी तुम्हें तृप्ति नहीं हुई। यह राज्य वैभव तो उसके सामने कुछ भी नहीं है। इसलिए इनका मोह छोड़कर अब मोक्षमार्ग में लगो। अपने मित्र मणिकेतु देव के ऐसे हितपूर्णवचनों को सुनकर भी उस सगर चक्रवर्ती ने लक्ष्य में नहीं लिया। वह विषयों में आसक्त और वैराग्य से विमुख ही रहा।
SR No.032251
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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