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________________ योगबिंदु ४५ योगी को योग से ऐसी स्थिरता प्राप्त होती है कि वह जो प्रतिज्ञा लेता है, उसे पूर्ण रूप से निभाने के लिये जीवन पर्यन्त अडिग रहता है। "प्राण जाय पर वचन न जाय" उसका मनोबल इतना बढ़ जाता है कि दशवैकालिकसूत्र में आता है "चइज्ज देहं नहु धम्म सासनं" - देह भले चली जाय, लेकिन वह अपने स्थिरता धर्म को नहीं छोड़ता । गजसुकुमाल, खंधकमुनि, धन्नामुनि, मेतार्यमुनि, ढंढणमुनि आदि का दृष्टान्त आत्मा की अडिगस्थिति के लिये प्रसिद्ध हैं । योग की साधना करते-करते साधक की धैर्यशक्ति भी इतनी बढ़ जाती है कि सैकड़ों तुफानों और झंझावातों के अन्दर भी वह घबराता नहीं हैं, उन्हें परम शान्ति और समता से सहन करता है। सभी संकटों का सामना वीरता से करता है। अपनी मूल प्रकृति को छोड़ता नहीं है। योगी की श्रद्धा भी अनुपम होती है। सभी प्राणियों के प्रति मित्रभाव होता हैं । गीता में सुन्दर कहा हैं : आत्मौपम्येन समं पश्यति सर्वत्र योऽर्जन । सुखं वा यदि दुःखं वा, स योगी परमो मतः ॥ गीता, अध्यात्मयोग, श्लोक हे अर्जुन ! जैसे हमको अनुकूल संयोग से सुख और प्रतिकूल संयोग से दुःख अनुभव होता है, वैसे ही जगत के सभी जीवों का सुख-दुःख जानकर किसी को दुःख न हो, सभी सुख का अनुभव करें, ऐसी भावना रखकर, जो योगी सभी आत्माओं को अपने जैसा देखता है वह सच्चा योगी है। जगत में सर्व जीवों के प्रति जब साधक की ऐसी अन्तर्दृष्टि खुल जाती है तब मैत्रीभाव से अन्दर के सभी तुफान शान्त हो जाते हैं और अनुपम शान्ति का अनुभव होता है । जब योगी की स्थिरता, धीरज, श्रद्धा, और मैत्रीभाव पूर्ण कला से खिल उठती है तब वह सज्जन सत्पुरुषों के प्रेम, प्रीति का भाजन बनता है। लोकप्रियता अपने आप आ जाती है। वह लोकप्रिय हो जाता है। योगी की प्रतिभा भी योगाभ्यास से विकसित होती है । बुद्धि का सहजभाव से उत्पन्न होनाजिसे प्रत्युत्पन्न बुद्धि कहते हैं । (बीरबल, अभयकुमार और तेनालीराम की भांति हर प्रश्न का वह तुरन्त उत्तर दे सकता है।) जीवाजीवादि तथा धर्माधर्मास्तिकाय आदि तत्त्वों का ज्ञान भी प्रतिभाजन्य सहजोपलब्धिजन्य होता है ॥५२॥ विनिवृत्ताग्रहत्वं च, तथा द्वन्द्वसहिष्णुता । तदभावश्च लाभश्च, बाह्यानां कालसंगतः ॥५३॥ अर्थ : आग्रह की निवृत्ति, द्वन्द्व सहन करने की शक्ति, द्वन्द्व का अभाव तथा बाह्य परिस्थितियों की अनुकूलता काल के संयोग-संगति से होती है ॥५३॥ विवेचन : योग की साधना करने वाले व्यक्ति में कदाग्रह, हठ, जिद सभी छूट जाते हैं, उसका हृदय बिल्कुल सरल और नम्र हो जाता है। सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-अलाभ आदि
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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