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________________ योगबिंदु उज्जवल, शुद्ध स्वरूप प्रकट करने वाले स्वप्न आते हैं, जैसे अपने इष्टदेव की मूर्ति के दर्शन करना, पूजा करना, भक्ति करना, सद्गुरुओं के मुख से पवित्र उपदेश सुनना, तीर्थयात्रा करना, मन्दिरों के दर्शन करना आदि शुभ अच्छे स्वप्न आते हैं। तात्पर्य है कि योग का अल्पसेवन भी शुभ प्रतीति करवाता है। योग की अल्पमति भी मनुष्य को जीवन में सुन्दर प्रवृत्ति करवाती हैं ॥४३|| देवान् गुरून् द्विजान् साधून् सत्कर्मस्था हि योगिनः । प्रायः स्वप्ने प्रपश्यन्ति दृष्टान् सन्नोदनापरान् ॥४४॥ अर्थ : सत्कर्मस्थ योगी लोग प्रायः अपने स्वप्न में देव, गुरु, द्विज और साधुओं को प्रसन्न और सत्प्रेरणा से युक्त देखते हैं ॥४४॥ विवेचन : सच्चे कर्म योगी अर्थात् स्व-सिद्धान्तानुसार आचार पालने वाले, स्वप्न में अपने इष्टदेव, गुरु, माता-पिता, तथा आचार्यादि द्विज, साधु पुरुषों को देखते हैं कि मेरे इष्टदेव, गुरु आदि मेरे उपर प्रसन्न हैं और मुझे उपदेश करने के लिये तत्पर हैं । मुझे प्रसन्न होकर उपदेश दे रहे हों ऐसा अनुभव करते हैं। स्वप्न हमारे सुषुप्त चित्त की ही दशायें है जो गहरे में हमारी आत्मा की अभिव्यक्ति है, प्रतिबिम्ब है। द्विज-धर्माचार्य अर्थात् माता-पिता से जन्म पाकर, पुनः दीक्षा लेकर दूसरा जन्म पाये हुये धर्माचार्य । द्विज का, ऐसा अर्थ टीकाकार ने किया है ॥४४॥ नोदनाऽपि च सा यतो यथाथैवोपजायते । तथाकालादिभेदेन हन्त नोपप्लवस्ततः ॥४५॥ अर्थ : द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की योग्यता से वह प्रेरणा भी यथार्थ सत्य सिद्ध होती है। उससे कोई विपरीतता आती नहीं ॥४५॥ विवेचन : स्वप्न में गुरु का उपदेश कैसे सफल हो सकता है ? ग्रंथकर्ता ने इसी को स्पष्ट करने के लिये "कालादिभेद" पद यहाँ पर रखा है । उपदेश में पात्रता, योग्यता आदि की मुख्यता है। बिना योग्यता के कितना भी अच्छा गुरु हो या उपदेश हो, उसका कोई लाभ नहीं । अतः द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव परिपक्व होने पर अर्थात् द्रव्य-यह आत्मा, क्षेत्र-उपदेश को ग्रहण करने वाला हृदय, काल-परिपक्वकाल और भाव-भावना । आत्मा की परिपूर्ण तैयारी हो, समय बिल्कुल परिपक्व हो गया हो और भाव का उद्रेक हो तो स्वप्न में की गई परमात्मा अथवा गुरु की प्रेरणा, नोदना, उपदेश यथार्थ-सत्यसिद्ध होता है। सम्यक्त्व का कारण बनता है और मनुष्य इससे प्रेरणा पाकर उत्कृष्ट साधना करने लग जाता है। इससे विपरीतता नहीं आती अर्थात् उपदेश निरर्थक-असत्य सिद्ध नहीं होता, क्योंकि वात, पित्त, कफ की विषमता योगी में नहीं होती । योगी में तो तीनों सम होते
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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