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________________ २४ योगबिंदु स्थिति में है अर्थात् मौन आत्मा का एक प्रकार का परिणाम है । फिर जब वही आत्मा बोलने लगती है तब आत्मा का मौनरूप पूर्व परिणाम नष्ट हो जाता है और वचनरूप बोलने का परिणाम आत्मा में पैदा होता है, तो आत्मा मौन परिणामी भी हुआ और वचनरूप परिणाम धारी भी हुआ। इस प्रकार सहज भाव से आत्मा परिणामी सिद्ध हो जाता है । किसी भी सिद्धान्त के समर्थन के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण एवं शास्त्र प्रमाण अनुसार जो वचन अबाधित हो उसकी ही गवेषणा बुद्धिमान को करनी चाहिये ॥२३॥ दृष्टबाधैव यत्रास्ति, ततोऽदृष्ट प्रवर्तनम् । असच्छूद्धाभिभूतानां, केवलं ध्यान्थ्य( बाध्य )सूचकम् ॥२४॥ अर्थ : जिन वचनों में दृष्ट का ही विरोध है उन वचनों के आधार पर अदृष्ट प्रवृत्ति करना तो केवल असत् श्रद्धा-असम्यक् श्रद्धा से कुण्ठित चित्त की दशा का ही सूचक है ॥२४॥ विवेचन : वेदान्त और बौद्धों की एकान्त नित्यता और एकान्त अनित्यता को ध्यान में रखकर, ग्रंथकार कहते हैं - कि एकान्तवाद में प्रत्यक्ष दोष आता है। जहाँ प्रत्यक्ष विरोध है वहाँ आगम वचनों को लेकर, अदृष्ट-जो इन्द्रिय और मन से साक्षात् दिखाई न दे, ऐसे स्वर्ग एवं अपवर्ग के लिये प्रवृत्ति करना, यम-नियम आदि करना तो केवल विवेक रहित असत् श्रद्धा-दृष्टिराग से जिसकी बुद्धि चित्त की दशा कुण्ठित हो गई है, उसी को सूचित करता है । जैसे धतूर पत्र खाने वाला, पीली मिट्टी और इंट पत्थर को स्वर्ण समझता है, वैसे ही अंधश्रद्धा, विवेकहीन श्रद्धा एवं दृष्टिराग से मनुष्य की बुद्धि जब कुण्ठित हो जाती है तब वह सत्य और असत्य की परीक्षा करने में असफल रहता है। दृष्टिराग बहुत बलवान होता है । दृष्टिराग को एक ओर रखकर, बुद्धि की कसौटी से सत्य-असत्य का निर्णय करने के बाद ही प्रवृत्ति करना उचित है। ग्रंथकार ने कहा भी है : पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ ग्रंथकार तटस्थ हैं । युक्ति युक्त वचन चाहे किसी का भी हो ग्रहण योग्य है। ऐसी उनकी मान्यता है । जो ऐसा नहीं करते वे इष्ट फल की सिद्धि से वंचित रह जाते हैं ॥२४॥ प्रत्यक्षेणानुमानेन, यदुक्तोऽर्थो न बाध्यते । दृष्टेऽदृष्टेऽपि युक्ता स्यात्प्रवृत्तिस्तत एव तु ॥२५॥ अर्थ : जिस वचन के अर्थ में प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण में बाधा-विरोध न आता हो ऐसे वचन से ही दृष्ट और अदृष्ट में प्रवृत्ति (हेयोपादेयरूप) युक्त है ॥२५॥
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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