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________________ योगबिंदु २१ से धीरे-धीरे योग सिद्ध करता है और अशुद्ध परिणामों से अध्यवसायों से नरक, तिर्यञ्चगति आदि में भटकता है I ग्रंथकार का आशय यह है कि आत्मा को कूटस्थ नित्य मानने से अर्थात् आत्मा को एकान्तरूप से अपरिणामी नित्य मानने से आत्मा में किसी भी प्रकार का परिवर्तन होना संभव नहीं है । वह वर्तमान काल में जिस बद्धस्थिति में है उसी स्थिति में सदा बद्ध रहेगा । और आत्मा को एकान्तरूप से असत् माना जाय तो आत्मा की ही असद्रूपता होने से शुद्धयोग उसमें कुछ भी परिणामान्तर पैदा नहीं कर सकता है। जो वस्तु खरश्रृंग के समान सर्वथा असत् ही है, उसमें विधाता भी क्या परिणामान्तर कर सकता है इसलिये आत्मा को परिणामी भी मानना चाहिये और अपरिणामी भी। यह मान्यता अनुभवसिद्ध है, जैसे आत्मा अभी प्रशम युक्त है फिर किसी निमित्त से क्रोध युक्त होकर गर्म-गर्म लाल सूर्ख बन जाता है। आत्मा अभी किसी निमित्त से विशेष नम्र दिख रहा है, परन्तु थोड़े क्षणों के बाद वही नम्र आत्मा उद्धत बन जाता है । इस प्रकार आत्मा की सतत् परिवर्तनशीलता देखने में आती है और सभी को अनुभवसिद्ध है। अतः बद्ध आत्मा को मुक्त करना है तो उसको एकान्तरूप से एकरूप नहीं मानना चाहिये । कर्म सहित आत्मा की भिन्न-भिन्न अवस्था संयोगवश होती है । इस अनुभवसिद्ध बात को मानने से, आत्मा नित्य - अनित्य, सत्-असत्, परिणामी - अपरिणामी तथा मुक्त और बद्ध स्थिति को मानने से, बद्ध आत्मा 'सम्यक् - योग' की निर्मलता को पाकर धीरे-धीरे मुक्त हो सकती है। इस प्रकार 'सम्यक् - योग' का प्रयोग आत्मा के लिये सार्थक हो सकता है अन्यथा एकान्तरूप से वह मुक्त नहीं हो सकता और उसके लिये सम्यक्योग का प्रयोग सार्थक नहीं हो सकता जो किसी को भी इष्ट नहीं ||२०|| दैवं पुरुषकारश्च, तुल्यावेतदपि स्फुटम् । युज्येते एवमेवेति वक्ष्याम्यूर्ध्वमदोऽपि हि ॥२१॥ I अर्थ : दैव और पुरुषार्थ दोनों तुल्यबल वाले है, यह तथ्य भी स्पष्ट है । वे किस प्रकार घटित होते हैं । इसका विवेचन ग्रंथ में आगे कहेंगे ॥२१॥ विवेचन : जैनदर्शन आत्मा को एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य मानता नहीं, नित्यानीत्यरूप, सदसद्रूप मानता है, इस प्रकार आत्मा सिद्ध होने पर अन्य दैव- पूर्वसञ्चित शुभाशुभ कर्म और पुरुषार्थ - पुरुष प्रयत्न, दोनों की सत्ता वास्तविक फलित हुई और दोनों का बल भी तुल्य है । इस तथ्य का स्पष्टीकरण विस्तृत विवेचन ग्रंथ में आगे किया जायेगा । ग्रंथकार ने ग्रंथ के मध्य में दैव और पुरुषार्थ कितने अंश में तुल्यबल वाले हैं उन दोनों का सुन्दर विवेचन किया है ॥२१॥ 1 लोकशास्त्राऽविरोधेन यद्योगो योग्यतां व्रजेत् । श्रद्धामात्रैकगम्यस्तु, हन्त नेष्टो विपश्चिताम् ॥२२॥
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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