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________________ योगबिंदु कि जीव की योग्यता अर्थात् कर्मसंयोग अनुकूल परिणति के बिना कर्म का संयोग घटित होता नहीं। यह योग्यता-कर्मसंयोग अनुकूल परिणति ही तत्त्व है। जीव का जीवत्व है। योग्यता कर्म संयोग अनुकूल परिणति और आत्मा दोनों अनादि हैं । आनदंघनजी ने भी कहा है : "कनकोपलवत् पयड़ी पुरुषतणी रे जोड़ी अनादि स्वभाव" (पद्मप्रभु स्तवन) आशय यह है कि योग्यता-बिना कर्म-संयोग नहीं और कर्म-संयोग बिना संसार नहीं, इसलिये वह योग्यता ही तत्त्व है । आत्मा का अनादि स्वभाव-जीव का जीवत्व अनादि कालीन योग्यता से ही जीव अनादिकाल से कर्मबन्धन करता है और संसार में भ्रमण करता है, अशुद्ध स्वर्ण की भांति कर्म सम्बन्ध भी आत्मा के साथ परम्परा-प्रवाह की अपेक्षा से अनादि कालीन होता है। परन्तु आत्मा जब प्रबल पुरुषार्थ करता है तो वह अपने पुरुषार्थ से कर्मबंधन की योग्यता का नाश करता है और मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता को प्रगट करता है। योग्यता रूप स्वभाव को प्राप्त करके, जीव कर्मक्षय करके, कर्मबन्धन की योग्यता का नाश करता है। अतः जीव और कर्म अनादि कालीन है किन्तु कर्मक्षय होने से अनादि सान्त हो जाता है। योग्यता के बिना किसी भी वस्तु का संयोग नहीं हो सकता । आकाश के साथ किसी भी वस्तु का ऐसा संयोग नहीं हो सकता कि जिस संयोग से कुछ परिणाम दिखाई दे । दो रूपी पदार्थों का संयोग ही किसी प्रकार के परिणाम को उत्पन्न कर सकता है अर्थात् ऐसा संयोग ही परिणाम दर्शक संयोग बन सकता है। जब तक आत्मा काषायिक भावों से युक्त है तब तक काषायिक अणुओं के साथ संलग्न होने से, जैन परिभाषा में ऐसी आत्मा को रूपी माना जाता है। इस रूपी आत्मा के साथ जो रूपी-कर्म अणुओं का संयोग होता है; वह परस्पर दो रूपी पदार्थों का ही संयोग कहा जाता है । परन्तु इसमें ध्यान रखने की बात यह है कि योग्यता के बिना तो किसी का संयोग भी नहीं हो सकता। आकाश में कर्म पुद्गलों के परमाणु रहते हैं पर आकाश के साथ उन परमाणुओं का संयोग किसी प्रकार का परिणाम पैदा नहीं कर सकता । जब आत्मा कषायी होता है तब किसी अपेक्षा से रूपी बन जाती है, उस कषायी आत्मा के साथ रूपी कर्म पुद्गलों का संयोग संघटित हो सकता है । आत्मा के साथ कर्मपुद्गलों के संयोग होने की योग्यता आत्मा में स्वाभाविक ही है । संयोग तो आदिमान् होता है अर्थात् इस पदार्थ का उस पदार्थ के साथ अमुक काल में संयोग हुआ है। परन्तु यहाँ जो आत्मा के साथ कर्मपुद्गलों का संयोग है यह आदिमान नहीं है पर अनादि काल से यह संयोग चला आया है । तात्पर्य यह हुआ कि संयोग भी योग्यता के बिना नहीं घट सकता और यह योग्यता भी आत्मरूप ही है, आत्मा से कोई अलग नहीं है। इस प्रकार जैसे आत्मा अनादि है वैसी ही उसकी योग्यता भी अनादि है, अर्थात् आत्मा के साथ कर्मपुद्गलों का संयोग अनादिकाल से चला आता है । यह संयोग अमुक काल में हुआ ऐसी बात संगत नहीं हो सकती।
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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