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________________ योगबिंदु जैसे शरीर में कोई तकलीफ हो जाय, तो हम कुशलवैद्य द्वारा शारीरिक परीक्षण करवाते हैं और बाद में उसी कुशलवैद्य द्वारा उचित उपचार करवाते हैं । पथ्य तथा उचित औषध का उपयोग करते हैं और धीरज रखकर सब उचित उपचार लेते हैं। तब कहीं समय के परिपाक होने पर देह रोगमुक्त बनती है । अत: हमें सोच-विचार करके, आन्तरिक शुद्धि के लिये सद्गुरु का सहयोग लेकर, प्रबल पुरुषार्थ करना जरूरी है। इस हेतु सद्गुरु रूप वैद्य की सलाह लेनी जरूरी होगी और फिर सद्गुरु के निर्देशानुसार आन्तरिक उपचार और आन्तरिक उपचार के पोषक हों वैसे बाह्य उपचार भी विशेष सावधानी से लेने होंगे। ऐसा दीर्घकाल तक करने से और विवेक के साथ धार्मिक अनुष्ठान करने से हमारा आन्तर मल धीरे-धीरे कम हो सकता है। इसी हेतु ग्रंथकार गोचर आदि की शुद्धि के लिये सीख - शिक्षा दे रहे हैं ॥४॥ गोचरश्च स्वरूपं च फलं च यदि युज्यते । अस्य योगस्ततोऽयं यन्मुख्यशब्दार्थयोगतः ॥५॥ अर्थ : गोचर, स्वरूप और फल इन तीनों का सम्बन्ध जहाँ यथार्थ घटित होता हो, वह योग है। ऐसा होने पर योग शब्द का मुख्यार्थ यह होता है कि मोक्ष से जो जोड़ता है वह योग है ॥५॥ विवेचन : गोचर :- गो-शब्द का अर्थ इन्द्रिय और मन होता है तथा चर- कर्म करने वाला अर्थात् जीव-इन्द्रिय और मन की सहायता से रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि पौद्गलिक भोगों का अनुभव करता है, इसलिये जीव को भी गोचर कहते हैं । कहा है – “विषयेषु परिणामी जीवः " विषयों में परिणाम पाने का स्वभाव है जिसमें वह जीव है । इसी जीव के लक्षण को यहाँ योग की भाषा में गोचर कहा है । गोचर का अर्थ आत्मा है । स्वरूप : आत्मा विषय कषायों में परिणत होकर, संसार बढ़ाता है और सद्गुरु के योग मिलने पर सम्यक् दर्शन - ज्ञान - चारित्र की आराधना करके मुक्त स्थिति को पाता है । तात्पर्य यह है कि संसार के योग्य परिणामों और मोक्ष के योग्य परिणामों की शक्तियाँ- स्वभाव आत्मा में सन्निहित है । जब आत्मा प्रमाद में होती है तो उसका विकास नहीं होता और जब आत्मा जागती है और सद्गुरु का योग मिलता है तब वह अपना उद्धार करती है । जीव स्वयं ही मोक्षगामी भी है और नरकगामी भी, क्योंकि उसका स्वभाव परिणामी है - परिणमनशील है । परिणामी - परिणमनशील स्वभाव के कारण ही अपनी उच्च योग्यता से मुक्तस्थिति रूप फल को भी प्राप्त कर लेता है । कहा भी है : यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्म फलस्य च । संसर्ता परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्य लक्षणः ॥ १ ॥ इस प्रकार गोचर - आत्मा और उसका स्वरूप लक्षण तथा मोक्ष-फल इन तीनों का सम्बन्ध जिस योग प्रक्रिया में यथार्थ घटता हो, वही योग कहा जाता है। आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिजी फरमाते हैं कि "मोक्खेण जोयणाओ जोगो धम्मवावारो" मोक्ष के लिये जो धर्मव्यापार अर्थात् धर्म प्रवृत्ति
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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