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________________ करने के पश्चात् सम्यक् दृष्टि प्राप्त होती है । सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व उसमें अपने तीव्र कषायों को मन्द करके प्रशमभाव में रहता है, नर एवं देव संबंधी भोगों को भी दुःखदायी समझकर संवेगभाव में रत होता है अतः साधक को केवल मोक्ष सुख की ही अभिलाषा रहती है। निर्वेद अर्थात् सांसारिक सुखों के प्रति अरति उत्पन्न होती है। अनुकम्पा अर्थात् संसार में प्राणियों के भयंकर दुःखों को देखकर उनके दुःखों को दूर करने की अभिलाषा करता है । आस्तिकता अतीन्द्रिय पदार्थों के अस्तित्व के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है । इस प्रकार वह सम्यक् दृष्टि जीव उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिकता आदि गुणों से सुशोभित रहता है । सम्यक् दृष्टि जीव को हमेशा वीतराग प्रणीत सत्शास्त्रों को श्रवण करने की प्रबल इच्छा होती है, धर्म के प्रति राग होता है एवं साधु-साध्वी आदि गुरुओं की सेवा-शूश्रुषा करने की प्रबल भावना होती है। ये सब सम्यक् दृष्टि के लक्षण है। सम्यक् दृष्टि की प्राप्ति में प्रमुख कारण तो परिणाम विशेष अर्थात् विशेष प्रकार का भाव ही है । वह तीन प्रकार का है। (१) यथाप्रवृत्तिकरण (२) अपूर्वकरण (३) अनिवृत्तिकरण आन्तरिक परिणाम - विशुद्ध भाव द्वारा भव्यात्मा ग्रंथी को भेद करके सम्यक् दृष्टि प्राप्त करता है। आचार्यश्री ने सम्यक् दृष्टि जीव की तुलना बौद्धदर्शन सम्मत बोधिसत्त्व से की है। क्योंकि सम्यक् दृष्टि के सभी लक्षण बोधिसत्त्व में उपलब्ध होते हैं। सम्यक् दृष्टि की तरह बोधिसत्त्व केवल कायपाती – केवल काया से पतित होता है किन्तु चित्तपाती – चित्त से पतित नहीं होता है। अन्य सभी गुण परोपकार रसिकता, बुद्धिमत्ता, मोक्षमार्ग पर चलना, उदार-विशाल हृदय आदि गुण तो दोनों में ही समान होते हैं । इन गुणों से युक्त साधक तब कर्मग्रन्थी को नष्ट कर देता है तब उसे परम शान्ति, सुख-आनन्द का अनुभव होता है। इस प्रकार की स्थिति की प्राप्ति के लिए जैन दार्शनिकों ने तथाभव्यत्वता को कारण माना है । तथाभव्यत्व को भवितव्यता भी कहा है । भव्य जीवों में स्वाभाविक रूप से ही भव्यत्व गुण रहता है । जीवात्माओं को काल, नियति, स्वभाव, भावीभाव, कर्म और पुरुषार्थ रूप कारण समवाय पंचक भी उसकी वैसी-वैसी योग्यता के अनुसार ही प्राप्त होता है यही उसकी तथाप्रकार की भव्यत्वता है । इसको अन्य दर्शन में श्रद्धायुक्त स्थिति विशेष कहा है । कहा भी गया है कि 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा वैसा उसको फल मिलता है। अतः हम कह सकते हैं कि जिसकी जैसी श्रद्धा से युक्त सदनुष्ठान होगा उसको उतना ही फल प्राप्त होगा । यहाँ आचार्यश्री ने ईश्वरवादियों की ईश्वरकृपा और सांख्यमतालम्बियों की प्रकृति परिणति को कारण मानना दोषयुक्त माना है। कहा है कि यदि स्वभाव की योग्यता नहीं हो तो उक्त व्यवस्था घटित नहीं होती है।
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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