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________________ योगबिंदु मोक्षप्राप्ति की योग्यता हो और अभव्य वह है जिसमें मोक्ष प्राप्ति की योग्यता न हो / भव्य प्राणियों को भी योग्य काल, क्षेत्र, भाव आदि सभी का योग हो तभी योग-अध्यात्म सम्भव है अन्यथा नहीं // 9 // तृणादीनां च भावानां, योग्यानामपि नो यथा / तदा घृतादिभावः स्यात्, तद्वद्योगोऽपि नान्यदा // 15 // ___ अर्थ : तृणादि पदार्थों में (घृत की) योग्यता होने पर भी तृणावस्था में घृतादि नहीं होता; इसी प्रकार जीवों को अचरमावर्तों में, उसी स्थिति में, योग प्राप्त नहीं होता // 15 // विवेचन : गाय आदि पशु तृण-घास आदि खाते हैं और उसका दूध बनता है, फिर दही और दही से क्रमशः घी तैयार होता है। इसलिये घास में घी बनने की योग्यता विद्यमान है, परन्तु योग्यता होने पर भी अगर घास अपनी उसी तृणावस्था में रहे तो घास से सीधे ही कोई भी घी नहीं बना सकता, बन नहीं सकता। उसी प्रकार अचरमावों में जीवों की स्थिति घास जैसी होती है। उनमें भव्यत्व की योग्यता होने पर भी अगर वे उसी ही स्थिति में रहे, चारित्रवान् न बने, पुरुषार्थ न करे, तो योग की प्राप्ति नहीं हो सकती / योग्यता के साथ-साथ पुरुषार्थ, योग्य क्षेत्र, परिपक्व काल और उच्च भावादि सामग्री का सहयोग अनिवार्य है, तभी अध्यात्मभाव की प्राप्ति हो सकती है // 15 // नवनीतादिकल्पस्तत्तद्भावेऽत्र निबन्धनम् / पुद्गलानां परावर्तश्चरमो न्यायसंगतम् // 16 // अर्थ : नवनीतादि की भाँति यहाँ अध्यात्म परिणाम को प्राप्त करने में चरम पुद्गलपरावर्त को हेतु बताना न्याययुक्त है // 16 // विवेचन : जैसे घास में घी की योग्यता विद्यमान है और अनुकूल संयोग प्राप्त होने पर, घास गाय के पेट में दूध रूप में परिणत हो जाता है, फिर दूध क्रमशः दही रूप में और दही अनुकूल संयोग पाकर घृतरूप में बदल जाता है / वास्तव में तृणों में घी के पर्याय को, परिणाम को पाने की योग्यता है / अर्थात् तृण का अन्तिम पर्याय घी और घी का प्रथम पर्याय तृण है, इसी प्रकार जीव में परिणाम प्राप्त करने की योग्यता है, अनुकूल संयोग पाने पर वह अध्यात्म को उपलब्ध कर सकता है / परन्तु अचरमपुद्गलपरावर्त में अनुकूल संयोगमार्गानुसारीत्व गुण - देवसेवा, गुरुमति, योग्यपात्र को दान, सदाचरण, दया, वात्सल्य, प्रीति, भक्ति विवेकादि गुण, जो योग के प्रथम अंग - योग की प्राथमिक भूमिका रूप है; उसे प्राप्त नहीं हो सकता और प्राथमिक भूमिका के बिना अध्यात्म की प्राप्ति नहीं हो सकती / अन्य जीवों को मार्गानुसारीत्व के गुण चरम पुद्गलपरावर्त में ही सम्भव
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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