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________________ 63 योगबिंदु प्राणी; सन्मार्ग, धर्म मार्ग, दया, दान, पुण्य, इन्द्रियनिग्रह, वीतराग की पूजा, सुदेव-गुरु-धर्म पर श्रद्धा, अहिंसा, सत्य अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि पांच महाव्रतों का सेवन आदि नहीं कर सकता। क्योंकि चरम पुद्गलपरावर्त से अन्य अनन्त पुद्गलपरावर्तों में भटकने वाले प्राणियों को कृष्णपाक्षिक कहा है / कृष्ण पाक्षिक प्राणियों को ऐसी दृष्टि ही नहीं होती, तो वह सन्मार्ग को कैसे पा सकता है ? // 85 // भवाभिनन्दिनः प्रायस्त्रिसंज्ञा एव दुःखिताः / केचिद्धर्मकृतोऽपि स्युलॊकपंक्तिकृतादराः // 86 // अर्थ : भवाभिनन्दी प्राणी प्रायः तीन संज्ञा वाले होने से दुःखी होते हैं / कुछ लोग धर्म कार्य करते हैं तथापि लोकपंक्ति का आदर करने वाले होते हैं // 86 // विवेचन : चरम पुद्गलपरावर्त से अन्य परावर्तों में प्राणी की मानसिक स्थिति कैसी होती है ? यह यहाँ बताई है। भवाभिनन्दी जीव भव संसार में आनन्द मानने वाले होते हैं। प्रायः 'आहार' 'भय' 'परिग्रह' इन तीन संज्ञाओं के गुलाम होते हैं / दुःख का नाश करने वाले विवेक का उनको स्वप्न में भी अभाव होता है इसीलिये वे अत्यन्त दुःखी होते है। वैसे तो शास्त्रों में चार संज्ञाए बताई है, परन्तु यहाँ पर ग्रंथकार ने तीन संज्ञाएँ जो व्यक्त हैं। लोगों को दिखाई देती हैं, वेही ली हैं / मैथुन संज्ञा अव्यक्त होती है इसलिये अव्यक्त संज्ञा का यहाँ ग्रहण नहीं किया है। कुछ लोग धर्म कार्य करते हैं लेकिन उनका धर्माचरण शुद्धि मूलक नहीं होता, लोगों को खुश करना ही उनका लक्ष्य होता है / इसलिये उनको लोकपंक्ति (लोकव्यवहार) का आदर करने वाले कहते हैं // 86 // क्षुद्रो लाभरतिर्दीनो, मत्सरी भयवान् शठः / अज्ञो भवाभिनन्दी स्यानिष्फलारम्भसंगतः // 87 // अर्थ : क्षुद्र, लाभ या लोभ में रति (प्रेम) रखनेवाला, दीन, मत्सरी-ईष्यालु, शठ, अज्ञानी प्रायः भवाभिनन्दी होते हैं। और उनकी क्रिया सच्चे फल को देने वाली नहीं होती // 87 // विवेचन : भवाभिनन्दी का लक्षण टीकाकार ने दिया है : "असारोऽपि-एष संसारः सारवानिव लक्ष्यते / दधिदुग्धाम्बु ताम्बूलपुण्यपण्याङ्गनादिभिः" // अनेक दुःखों से व्याप्त यह संसार, जो कि असार है, उसे भी भवाभिनन्दी प्राणी सारमयसारगर्भित मानता है और संसार में जो दही, दूध, घी और अनेक प्रकार के भोजन, पेय पदार्थ, द्राक्ष, मधु, मद्य आदि तथा ताम्बूल, पान, सुपारी, लौंग आदि सुगन्धी द्रव्यों के उपभोग तथा परस्त्री,
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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