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________________ स्तवन - १५ (राग : तुं प्यार का सागर है) सुण सुगुण सनेही साहिबा ! त्रिशलानंदन महावीर; शासन नायक जगधणी, शिवदायक गुणगंभीर ॥१॥ तुम सरिखा मुझ शिरछते हवे मोह तणु नहि जोर; रवि उदये कहो किम रहे, अंधकार अति घनघोर ॥ २ ॥ वेष रची बहु नव नवा हुं, नाच्यो विषम संसार; हवे चरण शरण तुझ आवीयो, मुझ भवनी भावठ वार ॥ ३ ॥ हुं निर्गुणो तो पण ताहरो, सेवक छु करूणा निधान; मुज मन मंदिर आवी वसो तो, नासे कर्म निदान ॥ ४ ॥ मनमा विमासो शुं किश्यु, मुज महेर करो जिनराज; सेवकना कष्ट नवि टळे ओ, साहिब ने शिरलाज ॥ ५ ॥ तु अक्षयसुख अनुभवे तो, दिजे मुजने एक; तु भांजे भुख भवोभव तणीवळी, पामु परम विवेक ॥ ६ ॥ शी कहुं मुज मन वातडी, तुमे सर्व विचार ना जाण वाचक यश एम विनवे रे, देजो क्रोड कल्याण ॥ ७ ॥ . READUR .. .
SR No.032214
Book TitleSurendra Bhakti Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPiyushbhadravijay, Jyotipurnashreeji, Muktipurnashreeji
PublisherShatrunjay Temple Trust
Publication Year2003
Total Pages68
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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