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________________ [४४]-- त्रिगड़े बेठा सोहियेरे, उदयाचल जिन भाण । दुरित तिमिर दुरे हरे रे, अनुपम केवल नाण ॥जिणंद॥२॥ रत्न सिंहासन बेसणेरे, छत्र त्रय शिर सार । चन्द्र किरण परे उजलारे, चामर ढले जयकार ॥जिणंद।।३।। वाणी योजन गामिनी रे, सरस सुधारस सार । देव ध्वनी तिहाँ दीपतोरे, भविजन मन सुखकार ॥जिणंद॥४॥ अशोक वृक्ष सुर तरु समोरे, नव पल्लव शीतल छांय । देवे दुंदुभि गयणां गणेरे, गाजे प्रभु सुपसाय ॥जिणंद।।५।। फुल पगर परिमल भरे रे, महेके दश दिशीसार । पंडित मेरूविजय तणोरे विनित विजय जयकार|जिणंद।।६।। ४ पद्मप्रभु का स्तवन हो अविनासी शिववासी सुविलासी सुसीमानंदना, छो गुणरासी तत्व प्रकाशी खासी मानो वंदना। तुमे धरनर पति ने कुले आया, तुमे सुसीमा राणीनाजाया। छप्पन दिशी कुमरी हुलराया हो॥१॥ सोहम सुरपति प्रभु घर आवे, करी पंच रूप सुरगिरिलावे । तिहां चोसठ हरि भेला थावे हो०॥२॥ कोड़ि साठ लाख उपर भारी, जल भरीया कलसा मनोहारी । सुर नवरावे समकित धारी हो०॥३॥
SR No.032213
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Sazzay Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShiv Tilak Manohar Gunmala
PublisherShiv Tilak Manohar Gunmala
Publication Year1964
Total Pages208
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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