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________________ [१६२ ] भोजन दीधे, फल हुवे एटलो ए ॥ १४ ॥ जिनदास कहे भगवन्त, तीण माहे एटलां गुण, कुण व्रत छ घणाए । केवली कहे अनन्त गुण तसु शोयलमा, कृष्ण शुक्ल पक्ष तणा ए ॥ १५ ॥ ढाल तीसरी केवली मुखे सांभली, श्रावक ते जिनदासो रे। कच्छ देशे हवे आवियो, पुरे ते मननी आशो रे ॥ १६॥ धन धन शीयल सुहामणो, शीयल समो नही कोई रे। शीयले सुरसा निध्य करे शीयले, शिव सुख होय रे ॥धन० १७॥ सेठ विजय विजया भणी, भक्ति शुभोजन दीई रे । सहस चोराशी साधुनो, पारणा नो फल लेइ रे ।। धन० १८ ॥ मात पिता जब पुछीयु, तेहनो शीयल वखाणे रे । केवली मुखे जीम सुण्यों तिम कहे तेह सुजाण रे ।। धन० १९॥ कृष्ण शुक्ल पक्ष दंपती, भोजन दे कोई भाव रे । सहस चौरासी साधुना, पारणानो फल पावे रे ॥ धन० २० ॥ मात पिता जब जाणीयो, प्रगट एह संबंध रे । सेठ विजय विजया वली, चारित्र लेइ प्रतिबन्ध रे॥ धन० २१ ।। कलश केवलीनी पासे, चारित्र लेई उदार । मन ममता मृकी, पाले निरतिचार ।। अष्टकर्म खपावी, पाम्या केवलज्ञान । ते मुक्ति पोता, दंपती सुगुण सुजाण ॥ १॥ तेहना गुग्ण
SR No.032213
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Sazzay Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShiv Tilak Manohar Gunmala
PublisherShiv Tilak Manohar Gunmala
Publication Year1964
Total Pages208
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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