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________________ [१३९] बहु नेहे अर्थ अभ्यासे सदा, मन धरता धर्म ध्यान रे । करे गच्छ निश्चित प्रवर्तक, दिये स्थविरने बहुमानरे ॥चो.४॥ अथवा अंग इग्योर जे वली, तेहना बार उपांग रे । चरण करणनी सित्तरी, जे धारे आपणे अंगरे ।।चो. ५॥ वली धारे आपणे अंग, पंचागी सम ते शुद्ध वाणी रे । नयगम भंग प्रमाण विचारने, दोखता जिन पाणरे ॥चो. ६।। संघ सकल हित करीया, रत्नादिक मुनि हितकार रे । पण व्यवहार परुपतां, कहे दस समाचारी आचाररे ॥चो.७॥ इन्द्रिय पंचथी विषय विकारने, वारता गुण गेह रे । श्री जिनशापन धर्म धुरा, निरवाहता शुचि देहरे ॥चो. ८॥ पंचवीसी पचविश गुणतणी, जे भाखी प्रवचन महिरे। मुक्ताफल सुक्तो परे, दीपे जस अंग उछाहरे ॥चो. ९॥ जस दीपे अति उच्छाहे, अधिक गुणे जीवथी एकतानरे । एहवा वाचक उपमान कहु, तेहथी शुभ ध्यानरे ॥चो.१०॥ १४॥तत्र प्रथम व्याख्यानस प्रथम सज्झाय प्रारंभ। ढोल पहेली पर्व पजूषण आव्या, आनन्द अंगे न माय रे । घर-घर उत्सव अति घणा, श्री संघ आवीने जाय रे ॥१॥ पर्व पजुषण आवियां ........ ए आंकणी.
SR No.032213
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Sazzay Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShiv Tilak Manohar Gunmala
PublisherShiv Tilak Manohar Gunmala
Publication Year1964
Total Pages208
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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